SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ विसुद्धिमग्गो चित्तभङ्गा मतो लोको पत्ति परमत्थिया" ति॥(खु०नि० ४:१/९८) एवं खणपरित्ततो मरणं अनुस्सरितब्बं । १३. इति इमेसं अट्ठन्नं आकारानं अञतरञतरेन अनुस्सरतो पि पुनप्पुनं मनसिकारवसेन चित्तं आसेवनं लभति, मरणारम्मणा सतिं सन्तिट्ठति, नीवरणानि विक्खम्भन्ति, झानङ्गानि पातुभवन्ति । सभावधम्मत्ता पन संवेजनीयत्ता च आरम्मणस्स अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति। लोकुत्तरज्झानं पन दुतियचतुत्थानि च आरुप्पज्झानानि सभावधम्मे पि भावनाविसेसेन अप्पनं पापुणन्ति। विसुद्धिभावनानुक्कमवसेन हि लोकुत्तरं अप्पनं पापुणाति। आरम्मणातिक्कमभावनावसेन आरुप्पं। अप्पनापत्तस्सेव हि झानस्स आरम्मणसंमतिक्कमनमत्तं तत्थ होति। इध पन तदुभयं पि नत्थि, तस्मा उपचारप्पत्तमेव झानं होति। तदेतं मरणस्सतिबलेन उप्पन्नता मरणस्सतिच्चेत सङ्ख गच्छति। ___इमं च पन मरणस्सतिं अनुयुत्तो भिक्खु सततं अप्पमत्तो होति, सब्बभवेसु अनभिरतिसकं पटिलभति, जीवितनिकन्तिं जहाति, पापगरही होति, असन्निधिबहुलो, परिक्खारेसु विगतमलमच्छेरो, अनिच्चसञा चस्स परिचयं गच्छति, तदनुसारेनेव च दुक्खसञा अनत्तसञा च उपट्ठाति। यथा अभावितमरणा सत्ता सहसा वाळमिग-यक्ख मृतकों के या यहाँ रहने वालों के निरुद्ध स्कन्ध एक जैसे हैं, जो कभी न लौटने के लिये जा चुके हैं॥ अनुत्पन्न चित्त से उत्पन्न नहीं होता, प्रत्युत्पन से ही जीता है, भङ्ग होने पर यह लोक मर जाता है। (अर्थात् 'अमुक व्यक्ति जीवित है'-यह कथन केवल लोक-व्यवहार की दृष्टि से ही सत्य है)। (खु० नि० ४ : १/९८) यों क्षणपरिमितता के रूप में मरण-स्मृति का अनुस्मरण करना चाहिये। (८) १३. इन आठ प्रकारों में से किसी एक रूप में भी अनुस्मरण करने से, बारंबार मन में लाते रहने से, चित्त अभ्यस्त होता है। मरण को आलम्बन बनानेवाली स्मृति टिक जाती है, नीवरण शान्त हो जाते हैं, ध्यानाङ्ग उत्पन्न होते हैं। किन्तु, क्योंकि आलम्बन स्वभाव-धर्म है (अर्थात् मृत्यु प्राणियों के लिये स्वाभाविक है) और संवेग उत्पन्न करने वाला है। अत: अर्पणा प्राप्त नहीं होती, उपचारध्यान ही प्राप्त होता है। किन्तु लोकोत्तर ध्यान और द्वितीय-तृतीय आरूप्य ध्यान स्वभाव धर्म में भी भावना की विशेषता से अर्पणा प्राप्त करते हैं; क्योंकि लोकोत्तर (ध्यान) विशुद्धि-भावना (शील, चित्त आदि छह की विशुद्धिभावना) के क्रमिक विकास द्वारा अर्पणा प्राप्त करता है, आरूप ध्यान आलम्बन का अतिक्रमण (करते हुए) भावना द्वारा; क्योंकि (आरूप्य ध्यान में) अर्पणा प्राप्त ध्यान का ही आलम्बन-समतिक्रमण मात्र होता है (द्र०-दशम परिच्छेद)। यहाँ तो दोनों में से कोई भी ध्यान नहीं है, अतः ध्यान केवल उपचारप्राप्त ही होता है। वह मरणस्मृति के बल से उत्पन्न होने से मरण-स्मृति ही कहा जाता है। इस मरणस्मृति में लगा हुआ भिक्षु सदैव अप्रमादी रहता है, सभी भवों के प्रति वैराग्य भाव (अनभिरति संज्ञा) प्राप्त करता है, जीवन के प्रति मोह छोड़ देता है, पापनिन्दक होता है, अपरिग्रही होता है। उपभोग्य वस्तुओं (परिष्कार) के बारे में उसमें रञ्चमात्र भी कृपणता नहीं होती।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy