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________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो सप्प-चोर-वधकाभिभूता विय मरणसमये भयं सन्तासं सम्मोहमापज्जन्ति, एवं अनापज्जित्वा अभयो असम्मूळ्हो कालं करोति। सचे दिढे व धम्मे अमतं नाराधेति, कायस्स भेदा सुगतिपरायनो होति। तस्मा हवे अप्पमादं कयिराथ सुमेधसो। एवं महानुभावाय मरणस्सतिया सदा ति॥ - इदं मरणस्सतियं वित्थारकथामुखं॥ ८. कायगतासतिकथा १४. इदानि यं तं अञत्र बुद्धप्पादा अप्पत्तपुब्बं सब्बतित्थियानं अविसयभूतं, तेसु तेसु सुत्तन्तेसु-"एकधम्मो, भिक्खवे, भावितो बहुलीकतो महतो संवेगाय संवत्तति। महतो अत्थाय संवत्तति। महतो योगक्खेमाय संवत्तति। महतो सतिसम्पजञाय सवत्तति। आणदस्सनपटिलाभाय संवत्तति। दिट्ठधम्मसुखविहाराय संवत्तति। विजाविमुत्तिफलसच्छिकिरियाय संवत्तति। कतमो एकधम्मो? कायगता सति" (अं नि० १/६४)। "अमतं ते, भिक्खवे, परिभुञ्जन्ति, ये कायगतासतिं परिभुञ्जन्ति। अमतं ते, भिक्खवे, न परिभुञ्जन्ति, ये कायगतासतिं न परिभुञ्जन्ति। अमतं तेसं, भिक्खवे, परिभुत्तं...अपरिभुत्तं..परिहीनं... अपरिहीनं...विरुद्धं...अविरुद्धं, येसं कायगतासति आरद्धा" (अं० नि० १/६७) ति एवं उसमें अनित्यसंज्ञा विकसित होती है, तत्पश्चात् दुःख-संज्ञा और अनात्म-संज्ञा भी। मरण की भावना न करने वाले सत्त्व सहसा (किसी) हिंसक जन्तु, यक्ष, सर्प, चोर, वधिक आदि के वश में पड़ जाने के समान, मृत्युकाल में भय, सन्त्रास, सम्मोह में जिस तरह पड़ जाते हैं, उस तरह न पड़ते हुए भय और सम्मोह से रहित होकर मरता है। यदि इसी जन्म में अमृत (निर्वाण) को नहीं पाता है, तो देहान्त के बाद सुगतिपरायण होता है। अतः ऐसी महान् गुणों वाली मरण-स्मृति में बुद्धिमान् साधक सदा प्रमादरहित रहे। यह मरणस्मृति की विस्तृत व्याख्या है। ८. कायगतास्मृति अब, जो कि बुद्ध की उत्पत्ति हुए विना कभी नहीं होती, जो सभी तीर्थिकों का अविषय है, तथा जो उन-उन सूत्रों में; जैसे __ "भिक्षुओ! एक धर्म की भावना करना, वृद्धि करना, महान् संवेग के लिए होता है, महान् अर्थ...महान् योगक्षेम...महान् स्मृति-सम्प्रजन्य...ज्ञान-दर्शन के लाभ...इस जीवन में सुखपूर्वक विहार...विद्याविमुक्ति-फल (तीन विद्यायें, निर्वाण और चार श्रामण्य-फल) के लिये होता है। कौन सा एक धर्म? कायगतास्मृति"। (अं० नि० १/६४) "भिक्षुओ! जो कायगता स्मृति का परिभोग करते हैं, वे अमृत का परिभोग करते हैं। भिक्षुओ! जो कायगता स्मृति का परिभोग नहीं करते, वे अमृत का परिभोग नहीं करते। भिक्षुओ! उन्होंने अमृत का परिभोग किया...नहीं किया...उपेक्षा की...उपेक्षा नहीं की...विरोध किया..विरोध नहीं किया, जिन्होंने कायगता स्मृति प्राप्त की" (अं० नि० १/६७)-इस प्रकार (कायगतास्मृति
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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