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________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो जीवेय्यं, यदन्तरं एकं आलोपं सङ्खादित्वा अन्झोहरामि, भगवतो सासनं मनसिकरेय्यं, बहुं वत मे कतं अस्सा'ति।यो चायं, भिक्खवे, भिक्खु एवं मरणस्सतिं भावेति-'अहो वताहं तदन्तरं जीवेय्यं, यदन्तरं अस्ससित्वा वा पस्ससामि, पस्ससित्वा वा अस्ससामि, भगवतो सासनं मनसिकरेय्यं, बहुं वत मे कतं अस्सा' ति।इमे वुच्चन्ति, भिक्खवे, भिक्खू अप्पमत्ता विहरन्ति, तिक्खं मरणस्सतिं भावेन्ति आसवानं खयाया" (अं० नि० ३/५०३) ति। एवं चतुपञ्चालोपसङ्घादनमत्तं अविस्सासियो परित्तो जीवितस्स अद्धा ति एवं अद्धानपरिच्छेदतो मरणं अनुस्सरितब्बं । १२. खणपरित्ततो ति। परमत्थतो हि अतिपरित्तो सत्तानं जीवितक्खणो एकचित्तप्पवत्तिमत्तो येव । यथा नाम रथचक्कं पवत्तमानं पि एकेनेव नेमिप्पदेसेन पवत्तति, तिट्ठमानं पि एकेनेव तिट्ठति, एवमेव एकचित्तक्खणिकं सत्तानं जीवितं। तस्मि चित्ते निरुद्धमत्ते सत्तो निरुद्धो ति वच्चति। यथाह-"अतीते चित्तक्खणे जीवित्थ, न जीवति, न जीविस्सति। अनागते चित्तक्खणे न जीवित्थ, न जीवति, जीविस्सति। पच्चुप्पन्ने चित्तक्खणे न जीवित्थ, जीवति, न जीविस्सति। . .. "जीवितं अत्तभावो च सुखदुक्खा च केवला। एकचित्तसमायुत्ता लहु सो वत्तते खणो॥ ये निरुद्धा मरन्तस्स तिट्ठमानस्स वा इध। सब्बे पि सदिसा खन्धा गता अप्पटिसन्धिका॥ अनिब्बत्तेन न जातो पच्चुपन्नेन जीवति। कि मैं उतने समय तक (भी) जीता जितने में एक ग्रास चबाकर निगलता हूँ, भगवान् के शासन... पूर्ववत्...कर लेता; और भिक्षुओ! जो भिक्षु मरणस्मृति की यों भावना करता है-"अरे! मैं उतने समय तक जीता जितने समय में साँस लेकर छोड़ता हूँ या साँस छोड़कर लेता हूँ, भगवान् के शासन ...पूर्ववत्... कर लेता।' भिक्षुओ! इन्हीं भिक्षुओं के बारे में कहा जाता है कि ये अप्रमत्त होकर विहरते हैं, आस्रवों के क्षय के लिये तीक्ष्ण मरण-स्मृति की भावना करते हैं"। (अं० नि० ३/५०३) __यों जीवन इतना सीमित है कि यह भी विश्वासयोग्य नहीं है कि चार-पाँच ग्रास भी खा पायेंगे या नहीं! इस प्रकार समय के सीमित होने के रूप में मरण का अनुस्मरण करना चाहिये। १२. खंणपरित्ततो (क्षण के सीमित होने से)-परमार्थतः तो सत्त्वों का जीवन-क्षण अत्यधिक सीमित है-एक चित्त-प्रवृत्तिमात्र तक ही। जैसे रथ का पहिया घूमते हए भी एक ही नेमि-प्रदेश से चलता है, स्थिर रहने पर भी एक ही नेमि-प्रदेश से टिका रहता है, वैसे ही जीवन एक चित्त-क्षणसन्तान (तक) ही है। उस (एक) चित्त (क्षण) के निरुद्ध होने मात्र से 'सत्त्व निरुद्ध हो गया' ऐसा कहा जाता है। जैसा कि कहा है-"अतीत चित्तक्षण में वह जिया, अब नहीं जीता, न जियेगा। अनागत चित्तक्षण में न जिया था, न जीता है, (अपितु) जियेगा। प्रत्युत्पन्न चित्तक्षण में न जिया था, न जीयेगा, (अपितु) जीता है। जीवन, व्यक्तित्व, सुख-दुःख केवल एक चित्त में समायुक्त (मिले हुए) हैं, और वह क्षण लघु है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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