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________________ ६२ विसुद्धिमग्गो गमनीयो सम्परायो, कत्तब्बं कुसलं, चरितब्बं ब्रह्मचरियं, नत्थि जातस्स अमरणं। यो, भिक्खवे, चिरं जीवति, सो वस्सतं, अप्पं वा भिय्यो ति। "अप्पमायुमनुस्सानं हीळेय्य नं सुपोरिसो। चरेय्यादित्तसीसो व नस्थि मच्चुस्स नागमो" ति॥ ' (सं० नि० १/१८०) अपरं पि आह–“भूतपुब्ब, भिक्खवे, अरको नाम सत्था अहोसी" ति सब्बं पि सत्तहि उपमाहि अरकसुत्तं (अं० नि० ३/३२७) वित्थारेतब्ब। अपरं पि आह-"यो चायं, भिक्खवे, भिक्खु एवं मरणस्सतिं भावेति-'अहो वताहं रत्तिन्दिवं जीवेय्यं, भगवतो सासनं मनसिकरेय्यं, बहुं वत मे कतं अस्सा' ति। यो चायं, भिक्खवे, भिक्खु एवं मरणस्सतिं भावेति-'अहो वताहं दिवसं जीवेय्यं, भगवतो सासनं मनसिकरेय्यं बहुं वत मे कतं अस्सा' ति। यो चायं, भिक्खवे, भिक्खु एवं मरणस्सतिं भावेति-'अहो वताहं तदन्तरं जीवेय्यं यदन्तरं एकं पिण्डपातं भुञ्जामि, भगवतो सासनं मनसिकरेय्यं, बहुं वत मे कतं अस्सा' ति। यो चाय, भिक्खवे, भिक्खु एवं मरणस्सतिं भावेति-अहो वताहं तदन्तरं जीवेय्यं, यदन्तरं चत्तारो पञ्च आलोपे सङ्घादित्वा अझोहरामि, भगवतो सासनं मनसिकरेय्यं, बहुं वत मे कतं अस्सा' ति। इमे वुच्चन्ति, भिक्खवे, भिक्खू पमत्ता विहरन्ति, दन्धं मरणस्सतिं भावन्ति आसवानं खयाय। "यो च ख्वाय, भिक्खवे, भिक्खु एवं मरणस्सतिं भावेति-'अहो वताहं तदन्तरं अल्प होता है। जो बहुत जीता है वह सौ वर्ष या उससे कुछ कम या अधिक जीता है। इसलिये भगवान् ने कहा है-"भिक्षुओ, मनुष्यों की यह आयु अल्प है, दूसरे लोक में जाना है, कुशल (कर्म) करना चाहिये, ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। ऐसा नहीं है कि जन्म लेने वाला मरेगा ही नहीं। भिक्षुओ, जो दीर्घकाल तक जीता है, वह सौ वर्ष या उससे कुछ कम अधिक। "मनुष्यों की आयु थोड़ी है। सत्पुरुष इसे उपेक्षा की दृष्टि से देखें। जिसका सिर जल रहा हो, ऐसे व्यक्ति सा व्यवहार करे। ऐसा नहीं कि मृत्यु कभी नहीं आयगी॥" (सं० १/१८०) आगे कहा है-“भिक्षुओ! पूर्वकाल में अरक नाम के शास्ता हुए थे"-यों (यहाँ) सभी सात उपमाओं से अरकसूत्र (अं नि० ३/३२७) की विस्तारपूर्वक बतलाना चाहिये।" और भी कहा है-"भिक्षुओ! जो भिक्षु मरण-स्मृति की इस प्रकार भावना करता हैक्या ही अच्छा होता कि मैं एक रात-दिन (तक भी) जी पाता, भगवान् के शासन (सद्धर्म) को मन में (धारण) कर लेता, तो मैं बहुत कुछ कर लेता; और भिक्षुओ! जो भिक्षु मरणस्मृति की भावना यों करता है-'क्या ही अच्छा होता कि मैं उतने समय जी पाता जितने समय में एक बार भोजन करता हूँ, भगवान् के शासन ...पूर्ववत्... कर लेता। और भिक्षुओ, जो भिक्षु मरणस्मृति की भावना यों करता है-'क्या ही अच्छा होता कि मैं उतना जी पाता जितने में चार-पाँस ग्राम चबाकर निगलता हूँ, भगवान् के शासन ...पूर्ववत्... कर लेता।' भिक्षुओ, इन्हीं भिक्षुओं के विषयमें कहा जाता है कि ये प्रमादी होकर विहार करते हैं, आस्रवों के क्षयहेतु मन्द मरणस्मृति की भावना करते हैं। "और, भिक्षुओ! जो भिक्षु मरण-स्मृति की भावना यों करता है-'कितना अच्छा होता
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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