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________________ अनुस्सतिकम्मट्ठाननिद्देसो ५१ खयवसेन मरणं होति, इदं आयुक्खयेन मरणं नाम । यं पन दूसीमारकलाबुराजादीनं विय तं खणं येव ठानाचावनसमत्थेन कम्मुना उपच्छिन्नसन्तानानं, पुरिमकम्मवसेन वा सत्थाहरणादीहि उपक्कमेहि उपच्छिज्जमानसन्तानानं मरणं होति, इदं अकालमरणं नाम । तं सब्बं पि वुत्तप्पकारेन जीवितिन्द्रियुपच्छेदेन सङ्गहितं । इति जीवितिन्द्रियुपच्छेदसङ्घातस्स मरणस्स सरणं मरणस्सति । ४. तं भावेतुकामेन रहोगतेन पटिसल्लीनेन "मरणं भविस्सति, जीवितिन्द्रियं उपच्छिजिस्सती " ति वा, "मरणं मरणं" ति वा योनिसो' मनसिकारो पवत्तेतब्बो । अयोनिसो पवत्तयतो हि इट्ठजनमरणानुस्सरणे सोको उप्पज्जति विजातमातुया पियपुत्तमरणानुस्सरणे विय। अनिट्ठजनमरणानुस्सरणे पामोज्जं उप्पज्जति, वेरीनं वेरिमरणानुस्सरणे विय। मज्झत्तजनमरणानुस्सरणे संवेगो न उप्पज्जति, मतकळेवरदस्सने छवडाहकस्स विय । अत्तनो मरणानुस्सरणे सन्तासो उप्पज्जति, उक्खित्तासिकं वधकं दिस्वा भीरुकजातिकस्स विय। तदेतं सब्बं पि सतिसंवेगञाणविरहतो होति । तस्मा तत्थ तत्थ हतमतसत्ते ओलोकेत्वा दिट्ठपुब्बसम्पत्तीनं सत्तानं मतानं मरणं आवज्जेत्वा सतिं च संवेगं च योजेत्वा " मरणं है, उसे आयुक्खयेन मरणं कहा जाता है। जो दूसीमार, कलाबुराज आदि के समान, उसी क्षण स्थान से च्युत करने में समर्थ कर्म द्वारा उपच्छिन्न जीवन-प्रवाह वालों का (मरण होता है), या फिर पूर्व कर्म के फलस्वरूप शस्त्राघात आदि उपायों से उपच्छिन्न जीवनप्रवाह वालों का मरण होता है, वह अकालमरणं कहा जाता है। वे सभी कथित जीवितेन्द्रय-उपच्छेद के अन्तर्गत आ जाते हैं। ४. उसकी भावना के अभिलाषी को एकान्त में एकाग्रचित्त होकर 'मरण होगा' 'जीवितेन्द्रिय का उपच्छेद होगा' ऐसे, या 'मरण मरण' ऐसे उपाय के साथ ( उचित ढंग से) चिन्तन करना चाहिये । यदि उचित ढंग से चिन्तन नहीं किया जाता है तो, प्रियपुत्र की मृत्यु के विषय में सोचते रहने वाली जन्मदात्री मां के समान, प्रियजनों की मृत्यु को सोचते रहने से शोक उत्पन्न होता है (वैसे ही) अप्रियजनों को मृत्यु के बारे में सोचते रहने से प्रसन्नता होती है, जैसे शत्रुओं को एकदूसरे की मृत्यु के विषय में सोचने से होती है। मध्यस्थ ( न प्रिय, न अप्रिय) जनों के मरण का अनुस्मरण करने से संवेग उत्पन्न नहीं होता, जैसे कि शव जलाने वाले ( चाण्डाल) आदि को मृत शरीर देखने से (संवेग नहीं होता) । अपनी मृत्यु के अनुस्मरण से भय उत्पन्न होता है, तलवार उठाये वधिक को देखकर भीरु स्वभाव प्राणी के समान । वे सभी (शोक आदि) स्मृति, संवेग और ज्ञान - रहितता से ही होते हैं। इसलिये यहाँ वहाँ १. दूसीमारकथा म० निकाये मारतज्जनियसुत्ते, कलाबुराजकथा च जातकट्ठकथायं खन्तिवादजातके दट्ठब्बा । २. योनिसो ति । उपायेन । ३. दूसीमार की कथा म० निकाय के 'मारतज्जनियसुत्त' में और कलाबुराज की कथा जात के 'खन्तिवादजातक' में द्रष्टव्य है।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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