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________________ छअनुस्सतिनिद्देसो ३४. दक्खिणा ति पन परलोकं सद्दहित्वा दातब्बदानं वुच्चति। तं दक्खिणं अरहति, दक्खिणाय वा हितो यस्मा नं महप्फलकरणताय विसोधेती ति दक्खिणेय्यो। __३५. उभो हत्थे सिरस्मि पतिट्ठापेत्वा सब्बलोकेन करियमानं अञ्जलिकम्मं अरहती ति अञ्जलिकरणीयो। ३६. अनुत्तरं पुञक्खेत्तं लोकस्सा ति। सब्बलोकस्स असदिसं पुजविरूहनट्ठानं । यथा हि रञो वा अमच्चस्स वा सालीनं वा यवानं वा विरूहनट्ठानं रञो सालिक्खेत्तं रञो यवक्खेत्तं ति वुच्चति, एवं सङ्घो सब्बलोकस्स पुञानं विरूहनट्ठानं । सङ्घ निस्साय हि लोकस्स नानप्पकारहितसुखसंवत्तनिकानि पुञानि विरूहन्ति। तस्मा सङ्घो अनुत्तरं पुञक्खेत्तं लोकस्सा ति। ३७. एवं सुप्पटिपन्नतादिभेदे सगुणे अनुस्सरतो "नेव तस्मि समये रागपरियुद्वितं चित्तं होति। न दोस...पे०...न मोहपरियुट्टितं चित्तं होति। उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति सङ्ख आरब्भा'' (अं० नि० ३/१०) ति पुरिमनयेनेव विक्खम्भितनीवरणस्स एकक्खणे झानङ्गानि उप्पजन्ति । सङ्घगुणानं पन गम्भीरताय नानप्पकारगुणानुस्सरणाधिमुत्तताय वा अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति। तदेतं सङ्घगुणानुस्सरणवसेन उप्पन्नत्ता सङ्घानुस्सतिच्वेव सङ्ख गच्छति। किन्तु जिन (सर्वास्तिवादियों) के (ग्रन्थों में) 'प्राहवनीय' (पाह्वनीय) पालिपाठ है, उनके (लिये) क्योंकि सङ्घ अग्र स्थान पाने योग्य होने से सबसे पहले वहाँ लाकर देना चाहिये-इसलिये पाहवनीय है। अथवा, प्रकर्षतया (सब प्रकार से) आह्वान करने योग्य है, इसलिये प्राहवनीय है। यहाँ इसी अर्थ में पाहुनेय्य कहा गया है। ३४. परलोक में विश्वास रखते हुए दिया जाने वाला दान 'दक्षिणा' कहा जाता है। वह सङ्घ उस दक्षिणा के योग्य है या दक्षिणा का हित करता है, क्योंकि महान् फल देकर उसे विशुद्ध कर देता है-इसलिये दक्खिणेय्य है। ३५. दोनों हाथों को सिर पर रखकर समस्त लोक द्वारा प्रणम्य है, अतः अञ्जलिकरणीय ३६. अनुत्तरं पुञ्जक्खेत्तं लोकस्स-समस्त संसार के लिये पुण्य-उत्पाद का अनुपम स्थान (क्षेत्र) है। जैसे राजा या अमात्य के शालि या जौ उगने के स्थान को राजकीय शालि का खेत या राजकीय जौ का खेत कहते हैं, उसी तरह सङ्घ सारे संसार के पुण्यों का उत्पत्ति-स्थान है। सङ्घ के सहारे लोगों के नाना प्रकार के हित-सुख उत्पन्न करने वाले पुण्य उदित होते हैं। इसलिये सङ्घो अनुत्तरं पुक्खेत्तं लोकस्स। ___३७. इस प्रकार सुप्रतिपत्रता आदि के भेद से सङ्घ के गुणों का अनुस्मरण करते हुए “उस समय चित्त न तो राग से क्षुब्ध होता है, न द्वेष ...पूर्ववत्... न मोह से क्षुब्ध होता है। उस समय सङ्घ के प्रति उसके चित्त की गति सीधी-सरल ही होती है"। (अं० नि० ३/१०)-यों पूर्वोक्त विधि से ही, शान्त हो चुके नीवरणों वाले इस योगी को एक क्षण में ध्यानाङ्ग उत्पन्न होते हैं। किन्तु सङ्घ के गुणों की गम्भीरता या नाना प्रकार के गुणों के अनुस्मरण के प्रति अभिरुचि होने 2-5
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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