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________________ विसुद्धिमग्गो इमं च पन सङ्घानुस्सतिं अनुयुत्तो भिक्खु सङ्घ सगारवो होति सप्पतिस्सो। सद्धादिवेपुल्लं अधिगच्छति, पीतिपामोजबहुलो होति, भयभेरवसहो, दुक्खाधिवासनसमत्थो, सङ्ग्रेन संवाससचं पटिलभति। सङ्घगुणानुस्सतिया अज्झावुत्थं चस्स सरीरं सन्निपतितसङ्घमिव उपोसथागारं पूजारहं होति, सङ्ग्रगुणाधिगमाय चित्तं नमति, वोतिक्कमितब्बवत्थुसमायोगे चस्स सम्मुखा सङ्घ पस्सतो विय हिरोत्तप्पं पच्चुपट्ठाति, उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो पन सुगतिपरायनो होति। तस्मा हवे अप्पमादं कयिराथ सुमेघसों। एवं महानुभावाय सङ्घानुस्सतिया सदा ति॥ . इदं सङ्घानुस्सतियं वित्थारकथामुखं ॥ ४. सीलानुस्सतिकथा । ३८. सीलानुस्सतिं भावेतुकामेन पन रहोगतेन पटिसल्लीनेन "अहो वत मे सीलानि अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानि भुजिस्सानि विझुप्पसथानि अपरामट्ठानि समाधिसंवत्तनिकानी" (अं० नि० ३/११) ति एवं अखण्डतादिगुणवसेन अत्तनो सीलानि अनुस्सरितब्बानि। तानि च गहटेन गहट्ठसीलानि, पब्बजितेन पब्बजितसीलानि।। ३९. गहट्ठसीलानि वा होन्तु पब्बजितसीलानि वा, येसं आदिम्हि वा अन्ते वा एकं से अर्पणा नहीं प्राप्त होती, उपचार-ध्यान ही प्राप्त होता है। सङ्घ के गुणों का बार बार स्मरण के कारण उत्पन्न होने से इस (ध्यान) को 'सङ्घानुस्मृति' कहते हैं। इस सङ्घानुस्मृति में लगा हुआ भिक्षु सङ्घ के प्रति गौरव और प्रतिष्ठा रखता है, उसमें श्रद्धा आदि की अधिकता तथा प्रीति-प्रमोद आदि की बहुलता होती है। वह भयजन्य भीषणता एवं दुःख सहने में समर्थ होता है। उसे ऐसा लगता है मानों वह सङ्घ के साथ हो। सङ्घ के गुणों की अनुस्मृति जिसमें रहती है ऐसा उसका शरीर सङ्घ के एकत्र होने के स्थान-उपोसथागारके समान पूजनीय हो जाता है। सङ्घ के गुणों की प्राप्ति हेतु चित्त में रुचि जागती है, (शिक्षापदों के) उल्लङ्घन की परिस्थिति आ पड़ने पर मानो सङ्घ सामने ही देख रहा हो-ऐसे लज्जा-संकोच होता है। उसे उत्तर (मार्ग-फल) भले ही न प्राप्त हो, किन्तु वह सुगति अवश्य प्राप्त करता है। इसलिये बुद्धिमान् जिज्ञासु (साधक) ऐसे महान गुणों वाली सङ्घानुस्मृति के विषय में सदा प्रमादरहित बना रहे॥ यह सङ्घानुस्मृति की विस्तृत व्याख्या है। ४. शीलानुस्मृति ३८. शीलानुस्मृति की भावना के अभिलाषी को भी एकान्त में जाकर, एकाग्रचित्त होकर "अहा! मेरे शील तो अखण्ड, अछिद्र, अकलङ्क, अकल्मष, स्वाधीन, विज्ञों द्वारा प्रशंसित, निर्दोष, समाधिप्रदायक हैं" (अं नि० ३/११)-ऐसे अखण्डता आदि गुणों के अनुसार अपने शील का बार बार स्मरण करना चाहिये। उनमें भी गृहस्थों को गृहस्थों के शील का, प्रव्रजितों को प्रव्रजितों के शील का स्मरण करना चाहिये। १. येसं ति। सीलादीनं।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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