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________________ विसुद्धिमग्गो सन्दिट्ठको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्जूही " (अ० नि० ३/२९ )ति एवं परियत्तिधम्मस्स चेव नवविधस्स च लोकुत्तरधम्मस्स गुणा अनुस्सरितब्बा।' १८. स्वाक्खातो ति । इमस्मि हि पदे परियत्तिधम्मो पि सङ्गहं गच्छति, इतरेसु लोकुत्तरधम्मो व। तत्थ परियत्तिधम्मो ताव स्वाक्खातो आदिमज्झपरियोसानकल्याणत्ता, सात्थसब्यञ्जनकेवलपरिपुण्णपरिसुद्धब्रह्मचरियप्पकासनत्ता च । यं हि भगवा एकगाथं पि देसेति सा समन्तभद्दकत्ता धम्मस्सं पठमपादेन आदिकल्याणा, दुतियततियपादेहि मज्झेकल्याणा, पच्छिमपादेन परियोसानकल्याणा। कानुसन्धिकं सुतं निदानेन आदिकल्याणं, निगमनेन परियोसानकल्याणं, सेसेन मज्झेकल्याणं । नानानुसन्धिकं सुत्तं पठमानुसन्धिना आदिकल्याणं, पच्छिमेन परियोसानकल्याणं, सेसेहि मज्झेकल्याणं। अपि च सनिदानसउप्पत्तिकत्ता आदिकल्याणं, वेनेय्यानं अनुरूपतो अत्थस्स अविपरीतताय च हेतूदाहरणयुत्ततो च मज्झेकल्याणं, सोतूनं सद्धापटिलाभजननेन निगमनेन च परियोसानकल्याणं । सकलो पि सासनधम्मो अत्तनो अत्थभूतेन सीलेन आदिकल्याणो, समथविपस्सना २८ का धर्म स्वाख्यात (भलीभाँति कहा गया) है, यहीं और अभी प्रत्यक्ष होने वाला (सान्दृष्टिक), समय न लगाने वाला, आकर देखा जा सकने योग्य, आगे (निर्वाण) की ओर ले जाने वाला और विद्वानों द्वारा स्वतः जानने योग्य है " - इस प्रकार पर्याप्ति धर्म ( नवाङ्ग त्रिपिटक) एवं नव प्रकार के लोकोत्तर धर्म ( चार मार्ग, चार फल और निर्वाण) के भी गुणों का अनुस्मरण करना चाहिये । १८. स्वाख्यात — इस पद में पर्याप्ति धर्म भी संगृहीत हो जाता है, अन्यों में केवल लोकोत्तर धर्म। इनमें पर्याप्ति धर्म, क्योंकि आदि मध्य और अन्त में कल्याणकर, अर्थतः और शब्दशः परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का प्रकाशक है, अतः स्वाख्यात है। भगवान् जिस किसी गाथा की देशना करते हैं, उसके सभी भाग कल्याणकारी (भद्र) होते हैं; अतः वह प्रथमपाद से आदि में कल्याणकर, द्वितीय तृतीय पाद से मध्य में कल्याणकर और अन्तिम पाद से अन्त में कल्याणकर है। एक अनुसन्धि (= अर्थ क्रम) वाला सूत्र निदान (प्रारम्भ, जैसे 'एकं समयं भगवा... विहरति ') से आरम्भ में कल्याणकर, निष्कर्ष से अन्त में कल्याणकर तथा शेष से मध्य में कल्याणकर है। अनेक अनुसन्धियों वाला सूत्र प्रथम अनुसन्धि से आदिकल्याणकर, अन्तिम से अन्त - कल्याणकर तथा शेष से मध्य - कल्याणकर है। साथ ही, निदान और उत्पत्ति (सुत्त - कथन का कारण ) सहित होने से आदि में कल्याणकर, विनेय जनों १. समन्तभद्दकत्ता ति । सब्बभागेहि सुन्दरत्ता । २. सनिदानसउप्पत्तिकत्ता ति । यथावुत्तनिदानेन सनिदानताय सअट्टुप्पत्तिकताय च। 'सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा । ३. सचित्तपरियोदपनं एतं बुद्धान सासनं" ति ॥ ( खु०नि० १ / ३५ ) ४. अत्थभूतेना ति । उपकारकेन । एवं वुत्तस्स सत्थुसासनस्स पकासको परियत्तिधम्मो ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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