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________________ छअनुस्सतिनिद्देसो २७ समाधियती ति अनुक्कमेन एकक्खणे झानङ्गानि उप्पज्जन्ति। बुद्धगुणानं पन गम्भीरताय नानप्पकारगुणानुस्सरणाधिमुत्तताय वा अप्पनं अप्पत्वा उपचारप्पत्तमेव झानं होति। तदेतं बुद्धगुणानुस्सरणवसेन उप्पन्नत्ता बुद्धानुस्सतिच्चेव सङ्कं गच्छति।। १६. इमं च पन बुद्धानुस्सतिमनुयत्तो भिक्खु सत्थरि सगारवो होति सप्पतिस्सो, सद्धावेपुल्लं सतिवेपुल्लं पञ्जावेपुल्लं पुजवेपुलं च अधिगच्छति, पीतिपामोज्जबहुलो होति, भयभेरवसहो, दुक्खाधिवासनसमत्थो, सत्थारा संवाससचं पटिलभति, बुद्धगुणानुस्सतिया अज्झावुत्थं चस्स सरीरं पि चेतियघरमिव पूजारहं होति, बुद्धभूमियं चित्तं नमति । वीतिक्कमितब्बवत्थुसमायोगे चस्स सम्मुखा सत्थारं पस्सतो विय हिरोत्तप्पं पच्चुपट्ठाति, उत्तरि अप्पटिविज्झन्तो पन सुगतिपरायनो होति।। तस्मा हवे अप्पमादं कयिराथ सुमेधसो। एवं महानुभावाय बुद्धानुस्सतिया सदा ति॥ इदं ताव बुद्धानुस्सतियं वित्थारकथामुखं ॥ २. धम्मानुस्सतिकथा १७. धम्मानुस्सतिं भावेतुकामेना पि रहोगतेन पटिसल्लीनेन "स्वाक्खातो भगवता धम्मो वितर्क करते हुए, विचार करते हुए, प्रीति उत्पन्न होती है। प्रीतियुक्त मन वाले योगी की कायिक, मानसिक पीड़ा उस प्रश्रब्धि द्वारा शान्त हो जाती है, जिसका आसन्न कारण प्रीति है। जिसकी पीडा शान्त हो चुकी है, उसे कायिक और चैतसिक सुख भी उत्पन्न होता है। सुखी का चित्त बुद्धगुणों को आलम्बन बनाकर एकाग्र होता है। इस प्रकार क्रमश: एक क्षण में ध्यानाङ्ग उत्पन्न होते हैं। किन्तु बुद्ध-गुणों के गाम्भीर्य के कारण, अथवा नानागुणों के अनुस्मरण के प्रति रुचि रहने के कारण, अर्पणा की प्राप्ति नहीं होती, उपचार-ध्यान ही होता है। तब, बुद्ध-गुणों के अनुस्मरण से उत्पन्न होने के कारण यह (ध्यान) भी 'बुद्धानुस्मृति' संज्ञक हो जाता है। - १६. बुद्धानुस्मृति में लगा हुआ यह भिक्षु शास्ता का गौरव और प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला होता है। श्रद्धा, स्मृति, प्रज्ञा और पुण्य की विपुलता एवं प्रीति-प्रमोद की अधिकता बढाने वाला होता है। भय की भयानकता और दुःख सहने में समर्थ होता है। उसे ऐसी अनुभूति होती है मानो वह शास्ता के समीप ही है। बुद्धगुणानुस्मृति जिसमें रहती है, ऐसा इसका शरीर भी चैत्यगृह के समान पूजनीय हो जाता है, बुद्धभूमि की ओर चित्त झुकता है। (शिक्षापदों के) उल्लङ्घन की परिस्थितियाँ सम्मुख आ पड़ने पर, मानों इसके समक्ष शास्ता को देखते हुए (उपस्थित हैं, ऐसा अनुभव होने से) ह्री एवं अपत्राप्य उपस्थित हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में, भले ही उसे उत्तर (मार्ग) प्राप्त न हो, फिर भी वह सुगति का पात्र तो होता ही है। ___ "इसलिये श्रेष्ठ बुद्धि वाला (व्यक्ति) इस प्रकार के महान् गुणों वाली बुद्धानुस्मृति के विषय में सदा अप्रमादी रहे।" यह बुद्धानुस्मृति की विस्तृत व्याख्या है। २. धर्मानुस्मृति १७. धर्मानुस्मृति-भावना के अभिलाषी को भी एकान्त में जाकर, एकाग्र होकर "भगवान्
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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