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________________ विसुद्धिमग्गो हितानिमित्तविमोक्खे अंत्रे च लोकियलोकुत्तरे उत्तरिमनुस्सधम्मे भजि, सेवि, बहुलं अकासि, तस्मा भत्तवा ति वत्तब्बे भगवा ति वुच्चति । (७) यस्मा पन ती भ्रवेसु तण्हासङ्घातं गमनं अनेन वन्तं, तस्मा भवेसु वन्तगमनो ति वत्तब्बे भवसद्दतो भ-कारं, गमनसद्दतो ग-कारं, वन्तसद्दतो व कारं च दीघं कत्वा आदा भगवा ति वच्चति, यथा लोके 'मेहनस्स खस्स माला' ति वत्तब्बे 'मेखला ' ति । (८) १५. तस्सेवं इमिना च इमिना च कारणेन सो भगवा अरहं... पे०... इमिना च इमिना च कारणेन भगवा ति बुद्धगुणे अनुस्सरतो "नेव' तस्मि समये रागपरियुट्ठितं चित्तं होति, न दोसपरियुट्ठितं, न मोहपरियुट्ठितं चित्तं होति । उजुगतमेवस्स तस्मि समये चित्तं होति तथागतं आरब्भ" (अ० नि० ३/४९) । इच्चस्स एवं रागादिपरियुट्ठानाभावेन विक्खम्भितनीवरणस्स कम्मट्ठानाभिमुखताय जुगतचित्तस्स बुद्धगुणपोणारे वितक्कविचारा पवत्तन्ति । बुद्धगुणे अनुवितक्कयतो अनुविचारयतो पीति उप्पज्जति, पीतिमनस्स पीतिपदट्ठानस्स पस्सद्धिया कायचित्तदरथा पटिप्पसम्भन्ति, पस्सद्धदरथस्स कायिकं पि चेतसिकं पि सुखं उप्पज्जति, सुखिनो बुद्धगुणारम्मणं हुत्वा चित्तं २६ हेतु, दर्शन, आधिपत्य के अर्थ में मार्ग को विभक्त करने वाले, बाँट-बाँटकर, खोल-खोलकर बतलाने वाले कहे गये हैं, अत: 'विभक्तवान्' में कहे जाने की अपेक्षा में भगवा (=भगवान्) कहे जाते हैं। (६) और क्योंकि इन्होंने दिव्य ब्रह्म आर्यविहारों में (दिव्यविहार = कसिण आदि आलम्बन वाले रूपावचर ध्यान, ब्रह्मविहार = मैत्री आदि ध्यान, आर्यविहार = फल समापत्ति) का, काय-चित्त उपधिविवेक (= निर्वाण ) का, शून्यता, अप्रणिहित, निमित्त-विमोक्ष का एवं अन्य (लौकिक अभिज्ञा आदि) लौकिक-लोकोत्तर अतिमानवीय धर्मों का भी भजन किया, सेवन किया, बढ़ाया; इसलिये 'भक्तवान्' न कहे जाकर भगवा (= भगवान्) कहे जाते हैं। (७) और क्योंकि तीनों भवों में तृष्णा नामक गमन (=सांसारिकता) का इन्होंने वमन कर दिया है, इसलिये 'भवों में वन्त गमन' इस प्रकार यदि कहें तो - 'भव' शब्द से भ-कार को, 'गमन' शब्द से ग-कार को, 'वन्त' शब्द से व कार को लेकर ( और व को दीर्घ कर) 'भगवा'इस प्रकार कहा जाता है, जैसे लोक में 'मेहन (लिङ्ग) के खाली स्थान (ख) की माला' (मेहनस्स खस्स माला) कहने की अपेक्षा 'मेखला' कहा जाता है। (८) १५. इस प्रकार 'इन इन कारणों से वह भगवान् अर्हत् हैं'... पूर्ववत्...' इन-इन कारणों से भगवान् हैं' - इस प्रकार से जब वह बुद्ध के गुणों का अनुस्मरण करता है, तब "उस समय (उस योगी का) चित्त न राग से लिप्त होता है, न द्वेष से लिप्त, न मोह से लिप्त । उस समय तथागत के प्रति उसका चित्त सीधे जाने वाला ही होता है। " ( अं० नि० ३/३९ ) एवं इस प्रकार राग आदि के पर्युत्थान (= उठ खड़ा होना) के अभाव से, दबे हुए नीवरण वाले एवं कर्मस्थान के अभिमुख होने से सीधे जाने वाले चित्त से युक्त इस (योगी) के वितर्कविचार बुद्ध के गुणों की ओर उत्सुकतापूर्वक प्रवृत्त होते हैं । बुद्ध के गुणों के विषय में बार-बार १. अञ्ञेति । लोकियाभिञादिके। २. बुद्धगुणपोणा ति । बुद्धगुणनिना ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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