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________________ विसुद्धिमग्गो यथाकम्मूपगञाणस्स च अतीत्तचेतनामत्तमेव आरम्मणं । पुब्बेनिवासत्राणस्स पन अतीता खन्धा खन्धपटिबद्धं च किञ्चि अनारम्मणं नाम नत्थि । तं हि अतीतक्खन्ध- खन्ध - पटिबद्धेसु धम्मेसु सब्बञ्ञतञाणगतिकं होती ति अयं विसेसो वेदितब्बो । अयमेत्थ अट्ठकथानयो । ३५६ यस्मा पन “कुसला खन्धा इद्धिविधत्राणस्स चेतोपरियत्राणस्स पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणस्स यथाकम्मूपगञाणस्स अनागतंसञाणस्स आरम्मंणपच्चयेन पच्चयो" (अभि० ७ : ११/१२४) ति पट्ठाने वृत्तं । तस्मा चत्तारो पि खन्धा चेतोपरियत्राणयथाकम्मूपगंजाणानं आरम्मणा होन्ति। तत्रा पि यथाकम्मूपगत्राणस्स कुसलाकुसला एवाति । अत्तनो खन्धानुस्सरणकाले पनेतं अज्झत्तारम्मणं । परस्स सन्धानुस्सणकाले बहिद्धारम्मणं । " अतीते विपस्सी भगवा अहोसि, तस्स माता बन्धुमती, पिता बन्धुमा" (दी० नि० २/२६६) ति आदिना नयेन नामगोत्तपठवीनिमित्तादिअनुस्सरणकाले नवत्तब्बारम्मणं होति । नामगोत्तं ति चेत्थ खन्धूपनिबन्धो सम्मुतिसिद्धो ब्यञ्जनत्थो दट्ठब्बो, न ब्यञ्जनं । ब्यञ्जनं हि सद्दायतनसङ्गहितत्ता परित्तं होति । यथाह - " निरुत्तिपटिसम्भिदा परित्तारम्मंणा" (अभि० २/ ३६३) ति । अयमेत्थ अम्हाकं खन्ति । एवं पुब्बेनिवासत्राणस्स अट्ठसु आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा | ७४. दिब्बचक्खुत्राणं परित्त-पच्चुप्पन्न-अज्झत्त-बहिद्धारम्मणवसेन चतूसु सम्प्रयुक्त चित्त को आलम्बन बनाता है, अतः औपचारिक रूप से उसे मार्ग को आलम्बन बनाने वाला कहा गया है। एवं यथाकर्मोपग ज्ञान का आलम्बन तो केवल अतीत चेतना ही होती है। किन्तु पूर्वनिवासज्ञान के लिये अतीतस्कन्ध या स्कन्ध- प्रतिबद्ध - कोई भी ऐसा नहीं है, जो आलम्बन न हो । वह अतीत के स्कन्धों एवं स्कन्धों से सम्बद्ध धर्मों में सर्वज्ञ - ज्ञान के समान गतिवाला होता है - यह विशेषता जाननी चाहिये। यह यहाँ अट्ठकथा का नय (बतलाया गया) है। किन्तु क्योंकि पट्ठान में कहा गया है कि "कुशल स्कन्ध ऋद्धिविध ज्ञान के, चेतः पर्याय ज्ञान के एवं पूर्वनिवासानुस्मृति ज्ञान के आलम्बन प्रत्यय के रूप में प्रत्यय होते हैं" (अभि० ७:१/ १२४); अतः चारों स्कन्ध चेतः पर्यायज्ञान एवं यथाकर्मोपग ज्ञान के आलम्बन होते हैं । एवं यहाँ भी, यथाकर्मोपग ज्ञान के (आलम्बन) कुशल एवं अकुशल ( स्कन्ध) ही होते हैं। स्वयं के स्कन्धों का अनुस्मरण करते समय यह अध्यात्म आलम्बन वाला होता है। दूसरे स्कन्धों का अनुस्मरण करते समय बाह्य आलम्बन वाला । " अतीत में विपश्यी भगवान् हुए थे, उनकी माता बन्धुमती, पिता बन्धुमान् थे" (दी० नि० २/ २६६ ) - आदि प्रकार से नाम, गोत्र, पृथ्वी, निमित्त आदि के अनुस्मरण के समय अवक्तव्य आलम्बन वाला होता है । एवं यहाँ नाम एवं गोत्र को शाब्दिक अर्थ के रूप में लिया जाना चाहिये, जो कि स्कन्धों से सम्बद्ध एवं लोकव्यवहार से सिद्ध है, शब्द (व्यञ्जन) के रूप में नहीं; क्योंकि शब्द तो शब्दायतन में सगृहीत होने से परिमित होता है। जैसा कि कहा है- "निरुक्तिप्रतिसम्विदा परिमित आलम्बन वाली होती है" ( अभि० २ / ३६३) । यहाँ, यह हमें स्वीकार है । यों पूर्वनिवासज्ञान की प्रवृत्ति आठ आलम्बनों में जाननी चाहिये । ७४. दिव्यचक्षुर्ज्ञान परिमित, प्रत्युत्पन्न अध्यात्म एवं बाह्य आलम्बन के अनुसार चार
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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