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________________ अभिञानिद्देसो ३५७ आरम्मणेसु पवत्तति। कथं? तं हि यस्मा रूपं आरम्मणं करोति, रूपं च परित्तं, तस्मा परित्तारम्मणं होति। विजमाने येव च रूपे पवत्तत्ता पच्चुप्पनारम्मणं । अत्तनो कुच्छिगतादिरूपदस्सनकाले अज्झत्तारम्मणं। परस्स रूपदस्सनकाले बहिद्धारम्मणं ति एवं दिब्बचक्खुञाणस्स चतूसू आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा। __७५. अनागतंसत्राणं परित्त-महग्गत-अप्पमाण-मग्ग-अनागत-अज्झत्त-बहिद्धानवत्तब्बारम्मणवसेन अट्ठसु आरम्मणेसु पवत्तति। कथं? तं हि "अयं अनागते कामावचरे निब्बत्तिस्सती" ति जाननकाले परित्तारम्मणं होति। "रूपावचरे अरूपावचरे वा निब्बत्तिस्सती" ति जाननकाले महग्गातारम्मणं। "मग्गं भावेस्सति, फलं सच्छिकरिस्सती" ति जाननकाले अप्पमाणारम्मणं । "मग्गं भावेस्सति"च्चेव जाननकाले मग्गारम्मणं । नियमतो पन तं अनागतारम्मणमेव। . तत्थ किञ्चापि चेतोपरियाणं पि अनागतारम्मणं होति, अथ खो तस्स सत्तदिवसब्भन्तरानागतं चित्तमेव आरम्मणं । तं हि अखं खन्धं वा खन्धपटिबद्धं वा न जानाति। अनागतंसजाणस्स पुब्बेनिवासबाणे वुत्तनयेन अनागते अनारम्मणं नाम नत्थि। "अहं अमुत्र निब्बत्तिस्सामी" ति जाननकाले अज्झत्तारम्मणं। "असुको अमुत्र निब्बत्तिस्सती" ति जाननकाले बहिद्धारम्मणं। "अनागते मेत्तेय्यो भगवा उप्पजिस्सति, सुब्रह्मा नामस्सं ब्राह्मणो पिता भविस्सति, ब्रह्मवती नाम ब्राह्मणी माता" (दी० नि० ३/६०) ति आलम्बनों में प्रवृत्त होता है। कैसे १. क्योंकि वह रूप को आलम्बन बनाता है एवं रूप परिमित है, अतः परिमित आलम्बन वाला होता है। एवं २. विद्यमान रूप में ही प्रवृत्त होने से प्रत्युत्पन्न आलम्बन वाला होता है। ३. अपने उदरस्थ (पदार्थ) आदि रूप को देखते समय अध्यात्म आलम्बन वाला होता है, और ४. दूसरे का रूप देखते समय बाह्य आलम्बन वाला। यों, दिव्यचक्षुर्ज्ञान की प्रवृत्ति चार आलम्बनों में जाननी चाहिये। __७५. अनागत संज्ञान की प्रवृत्ति परिमित, महद्गत, अप्रमाण, मार्ग, अनागत, अध्यात्म, बाह्य एवं अवक्तव्य आलम्बन के अनुसार आठ आलम्बनों में होती है। कैसे? वह 'यह भविष्य में कामावचर में उत्पन्न होगा'- यह जानते समय परिमित आलम्बन वाला होता है। 'रूपावचर या अरूपावचर में उत्पन्न होगा'-यह जानते समय महदगत आलम्बन वाला होता है। 'मार्ग की भावना करेगा, फल का साक्षात्कार करेगा'-यह जानते समय अप्रमाण आलम्बन वाला। एवं, केवल मार्ग की भावना करेगा' जानते समय मार्गालम्बन वाला होता है। किन्तु वह समान रूप से अनागत को ही आलम्बन बनाने वाला होता है।" वहाँ यद्यपि चेत:पर्याय झान का आलम्बन भी अनागत होता है, तथापि उसका आलम्बन सात दिनों के भीतर वाला चित्त ही होता है। वह दूसरे स्कन्ध को या स्कन्ध से सम्बद्ध को नहीं जानता। पूर्वनिवासज्ञान (के प्रसङ्ग) में कहे गये के अनुसार ही, अनागत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो अनागत संज्ञान का आलम्बन न हो। 'मैं वहाँ उत्पन्न होऊँगा'-यह जानते समय अध्यात्म आलम्बन वाला होता है। 'अमुक वहाँ उत्पन्न होगा'-यह जानते समय बाह्य आलम्बन वाला। "अनागत में मैत्रेय भगवान् उत्पन्न
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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