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________________ अभिञनिद्देस ३५५ न च तानि नानारम्मणानि होन्ति, अद्धावसेन पच्चुप्पन्नारम्मणत्ता । एकारम्मणत्ते पिच इद्धिचित्तमेव परस्स चित्तं जानाति, न इतरानि । यथा चक्खुविञ्ञणमेव रूपं पस्सति, न इतरानी ति । इति इदं सन्ततिपच्चुप्पन्नस्स चेव अद्धापच्चुप्पन्नस्स च वसेन पच्चुप्पन्नारम्मणं होति । यस्मा वा सन्ततिपच्चुपन्नं पि अद्धापच्चुप्पन्ने येव पतति, तस्मा अद्धापच्चुप्पनवसेनेवेतं पच्चुप्पन्नारम्भणं ति वेदितब्बं । परस्सं चित्तारम्मणता येव पन बहिद्धारम्मणं होती ति एवं चेतोपरियञाणस्स अट्ठसु आरम्मणेसु पवत्ति वेदितब्बा । ७३. पुब्बेनिवासत्राणं परित्त महग्गत- अप्पमाण - मग्ग-अतीत- अज्झत्त - बहिद्धानवत्तब्बारम्मणवसेन अट्ठसु आरम्मणेसु पवत्तति । कथं ? तं हि कामावचरक्खन्धानुस्सरणकाले परित्तारम्मणं होति। रूपावचरारूपावचरक्खन्धानुस्सरणकाले महग्गतारम्मणं । अती अत् परेहि वा भावितमग्गं सच्छिकतफलं च अनुस्सरणकाले अप्पमाणारम्मणं । भावितमग्गमेव अनुसरणकाले मग्गारम्मणं । नियमतो पनेतं अतीतारम्मणमेव । तत्थ किञ्चापि चेतोपरियञाणयथाकम्मूपगञाणानि पि अतीतारम्मणानि होन्ति, अथ खो तेसं चेतोपरियत्राणस्स सत्तदिवसब्भन्तरातीतं चित्तमेव आरम्मणं । तं हि अञ्जं खन्धं वा खंन्धपटिबद्धं वा न जानाति, मग्गसम्पयुत्तचित्तारम्मणता पन परियायतो मग्गारम्मणं ति वृत्तं । जाता है। तब चार या पाँच जवन ( चित्त जवन करते हैं), जिनमें अन्तिम ऋद्धिचित्त होता है, शेष कामावचर । उन सब का आलम्बन भी वह निरुद्ध ( पर - ) चित्त ही होता है, एवं वे नाना आलम्बनों वाले नहीं होते; क्योंकि उनका आलम्बन अध्व के रूप में प्रत्युत्पन्न होता है। एक आलम्बन वाला होने पर भी, केवल ऋद्धि-चित्त ही परचित्त को जानता है, दूसरे नहीं; जैसे कि चक्षुर्विज्ञान ही रूप को देखता है, अन्य नहीं । यों, यह (ऋद्धिचित्त ) सन्ततिप्रत्युत्पन्न एवं अध्व - प्रत्युत्पन्न के रूप में प्रत्युत्पन्न आलम्बन वाला होता है। अथवा, क्योंकि सन्तति - प्रत्युत्पन्न भी अध्व - प्रत्युत्पन्न के ही अन्तर्गत आता है, अतः जानना चाहिये कि यह अध्वप्रत्युत्पन्न के रूप में ही प्रत्युत्पन्न आलम्बन वाला होता है। इस प्रकार चेत: पर्याय ज्ञान की प्रवृत्ति आठ आलम्बनों में जाननी चाहिये । ७३. पूर्वनिवासज्ञान परिमित, महद्गत, अप्रमाण, मार्ग, अतीत, अध्यात्म, बाह्य एवं अवक्तव्य आलम्बन के अनुसार आठ आलम्बनों में प्रवृत्त होता है। कैसे ? कामावचर (भूमि के ) स्कन्धों का अनुस्मरण करते समय वह परिमित आलम्बन वाला होता है। रूपावचर एवं अरूपावचर (भूमियों के) स्कन्धों का अनुस्मरण करते समय महद्रत आलम्बन वाला होता है । अतीत काल में स्वयं या दूसरों द्वारा भावित मार्ग का या साक्षात्कृत फल का अनुस्मरण करते समय अप्रमाण आलम्बन 'वाला होता है। भावित मार्ग का ही अनुस्मरण करते समय मार्गालम्बन वाला होता है। किन्तु प्रत्येक स्थिति में इसका आलम्बन अतीत से ही सम्बद्ध होता है। यद्यपि चेत:पर्याय एवं यथाकर्मोपग ज्ञान भी अतीत आलम्बन वाले होते हैं, तथापि उनमें से चेत:पर्याय ज्ञान का आलम्बन सात दिनों के भीतर का चित्त ही होता है। वह न तो दूसरे स्कन्ध को जानता है, और न ही स्कन्ध से प्रतिबद्ध नाम, उपाधि आदि को । किन्तु क्योंकि यह मार्ग
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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