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________________ अभिज्ञानिद्देसो ३४३ ५१. कायदुच्चरितेना ति आदिसु-दुदु चरितं, दुटुं वा चरितं किलेसपूतिकत्ता ति दुच्चरितं । कायेन दुच्चरितं, कायतो वा उप्पन्नं दुच्चरितं ति कायदुच्चरितं। इतरेसु पि एसेव नयो। समन्नागता ति। समङ्गीभूता। अरियानं उपवादुका ति । बुद्ध-पच्चेकबुद्ध-सावकानं अरियानं अन्तमसो गिहिसोतापन्नानं पि अनत्थकामा हुत्वा अन्तिमवत्थुना वा गुणपरिधंसनेन वा उपवादका। अक्कोसका, गरहका ति वुत्तं होति। तत्थ, 'नत्थि इमेसं समणधम्मो, अस्समणा एते' ति वदन्तो अन्तिमवत्थुना उपवदति। 'नत्थि इमेसं झानं वा विमोक्खो वा मग्गो वा फलं वा' ति आदीनि वदन्तो गुणपरिधंसनवसेन उपवदती ति वेदितब्बो। सो च जानं वा उपवदेय्य अजानं वा, उभयथा पि अरियूपवादी व होति। भारियं कम्मं आनन्तरियसदिसं सग्गावरणं च मग्गावरणं च, सतेकिच्छं पन होति। तस्स आविभावत्थं इदं वत्थु वेदितब्बं... ५२. अञ्जतरस्मि किर गामे एको थेरो च दहरभिक्खु च पिण्डाय चरन्ति । ते पठमघरे येव उलुङ्कमत्तं? उण्हयागुं लभिंसु। थेरस्स च कुच्छिवातो रुज्जति। सो चिन्तेसि–'अयं यागु महं सप्पाया, याव न सीतला होति, ताव नं पिबामी' ति मनुस्सेहि उम्मारत्थाय आहटे दारुखण्डे निसीदित्वा पिवि। इतरो तं जिगुच्छन्तो 'अतिखुदाभिभूतो महल्लको अम्हाकं लजितब्बकं अंकासी' ति आह । थेरो गामे चरित्वा विहारं गन्त्वा दहरभिक्खं आह-"अस्थि कायदुश्चरित्र है। अन्यों में भी यही नय है। समन्नागतत्ता-युक्त होने से। - अरियानं उपवादका-आर्यों अर्थात् बुद्ध या श्रावकों का, यहाँ तक कि गृहस्थ स्रोतआपनों का भी अनर्थ चाहते हुए, उन पर अन्तिम वस्तु (=पाराजिक) का या गुणों के विनष्ट होने का आरोप लगाने वाले। अर्थात् कोसने वाले, निन्दा करने वाले। यहाँ, 'इनमें श्रमण धर्म नहीं है, ये श्रमण नहीं है'-यों कहने वाला अन्तिम वस्तु का आरोप लगाता है। इनमें ध्यान, विमोक्ष, मार्ग या फल नहीं है'-आदि कहने वाला गुण के नष्ट होने का आरोप लगाता है-यह जानना चाहिये। एवं वह चाहे जानबूझकर (ऐसा अपशब्द) कहे या अनजाने में, आर्यों का अपवाद तो होता ही है। यह आनन्तर्य (मातृवधादि) के समान महापाप है, स्वर्ग का आवरण (=अवरोधक) एवं मार्ग का आवरण है। किन्तु उसका प्रतिकार क्षमायाच्या से सम्भव है। इसे स्पष्ट करने के लिये इस कथा को जानना चाहिये ५२. किसी ग्राम में एक स्थविर एवं एक तरुण भिक्षु भिक्षाटन कर रहे थे। उन्हें पहले घर से ही कछुल (दर्वी) भर रार्म यवागु मिली। स्थविर के उदर में वायु का प्रकोप हुआ था। उसने सोचा-'यह यवागु मेरे लिये लाभप्रद होगी, ठंढी होने के पहले ही पी लूँ', एवं उसने मनुष्यों द्वारा ड्योढ़ी के लिये लाये गये लकड़ी के टुकड़े पर बैठकर पी लिया। दूसरे ने उससे जुगुप्सा करते हुए कहा-"अत्यधिक भूख से पीड़ित इस वृद्ध ने हमारे लिये लज्जाजनक (कार्य) १. उळुङ्कमत्तं ति। महाकटच्छुमत्तं । 2-24
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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