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________________ ३४२ विसुद्धिमग्गो 1 निस्सन्दयुत्तत्ता इट्ठकन्तमेनापवण्णयुते । दुब्बण्णे ति । दोसनिस्सन्दयुत्तत्ता अनिट्ठाकन्तअमनापवण्णयुत्ते। अनभिरूपे, विरूपे ति पि अत्थो । सुगते ति । सुगतिगते । अलोभनिस्सन्दयत्तत्ता वा अड्डे महद्धने । दुग्गते ति । दुग्गतिगते । लोभनिस्सन्दयुत्तत्ता वा दलिद्दे अप्पन्नपाने । ५०. यथाकम्मूपगे ति । यं यं कम्मं उपचितं तेन तेन उपगते । तत्थ पुरिमेहि चवमाने ति आदीहि दिब्बचक्खुकिच्चं वृत्तं इमिना पन पदेन यथा कम्मूपगञाणकिच्चं । तस्स च ञाणस्स अयमुत्पत्तिक्कमो - इध भिक्खु हेट्ठा निरयाभिमुखं आलोकं वड्ढेत्वा नेरयिके सत्ते पस्सति महादुक्खमनुभवमाने । तं दस्सनं दिब्बचक्खुकिच्चमेव । सो एवं मनसि करोति - 'किं नु खो कम्मं कत्वा इमे सत्ता एतं दुक्खं अनुभवन्ती' ति ? अर्थस्स 'इदं नाम कत्वा' ति तङ्कम्मारम्मणं जाणं उप्पज्जति । तथा उपरि देवलोकाभिमुखं आलोकं वदेत्वा नन्दनवन-मिस्सकवन-फारुसकवनादिसु सत्ते पस्सति महासम्पत्तिं अनुभवमाने । तं पि दस्सनं दिब्बचक्खुकिच्चमेव । सो एवं मनसिकरोति - 'किं नु, खो, कम्मं कत्वा इमे सत्ता एतं सम्पत्तिं अनुभवन्ती' ति ? अथस्स, इदं नाम कत्वा ति तङ्कम्मारम्मणं जाणं उप्पज्जति । इदं यथाकम्मूपगञाणं नाम । इमस्स विसुं परिकम्मं नाम नत्थि । यथा चिमस्स, एवं अनागतंसत्राणस्सापि । दिब्बचक्खुपादकानेव हि इमानि दिब्बचक्खुना सहेव इज्झन्ति । है, उन्हें । पणीते - अमोह - निष्यन्द से युक्त होने के कारण तद्विपरीत को। सुवण्णे - अद्वेष- निष्यन्द से युक्त होने से इष्ट, कान्त, मनाप ( लुभावने ) वर्ण से युक्तों को । दुब्बण्णे-द्वेष- निष्यन्द से युक्त होने से अनिष्ट, अकान्त, अमनाप वर्ण से युक्तों को । अर्थात् कुरूपों, विरूपों को । सुगते - सुगतिप्राप्त को । अथवा, अलोभ - निष्यन्द से युक्त होने से धनाढ्यों, महाधनिकों को । दुग्गते - दुर्गति प्राप्त को । अथवा, लोभ - निष्यन्द से युक्त होने से दरिद्र, अल्प अन्न-पान वालों को । ५०. यथाकम्मूपगे - जिस जिस कर्म का उपार्जन किया है, उस उसके अनुसार अवस्था को प्राप्त होने वालों को । इनमें पहले के 'च्युत होते हुए' आदि द्वारा ( योगी के) दिव्य चक्षु का कृत्य बतलाया गया है, किन्तु इस पद द्वारा कर्मानुसार प्राप्त ज्ञान के कृत्य को । और उस ज्ञान का उत्पत्तिक्रम यह है - यहाँ भिक्षु नीचे नरक की ओर आलोक बढ़ाकर महादुःख का अनुभव करने वाले नारकीय सत्त्वों को देखता है। वह दर्शन दिव्यचक्षु का ही कृत्य है । वह यों विचार करता है - 'कौन कर्म करके ये सत्त्व इस दुःख का अनुभव करते हैं ?' तब उसे "इसे करके” – यों उस कर्म को आलम्बन बनाने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है। वैसे ही ऊपर देवलोक की ओर आलोक बढ़ाकर नन्दनवन, मिश्रकवन, पारुषकवन आदि में महासम्पत्ति का अनुभव करने वाले सत्त्वों को देखता है। उसे भी देखना दिव्यचक्षु का ही कार्य है । वह यों विचार करता है—'कौन कर्म करके ये सत्त्व इस सम्पत्ति का अनुभव कर रहे हैं? तब उसे 'इसे करके'यों उस कर्म को आलम्बन बनाने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है। इसे 'यथाकर्मोपग ज्ञान' कहते हैं । इसके लिये कोई विशेष परिकर्म नहीं करना होता । एवं जैसे इसका, वैसे ही अनागत संज्ञान का भी; क्योंक दिव्य चक्षु पर आधृत (ये ज्ञान) दिव्यचक्षु के साथ ही सिद्ध हो जाते हैं। ५१. कायदुच्चरितेन आदि में - क्लेश द्वारा कलुषित होने से जो बुरा चरित्र है, वह दुश्चरित्र
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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