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________________ ३०० विसुद्धिमग्गो २८. अपि च ओकासे ओरोहणत्थं पि इमिना दिब्बचक्खुलाभिना भवितब्बं । अयं हि सचे अनोकासे न्हानतित्थे वा गामद्वारे वा ओरोहति, महाजनस्स पाकटो होति। तस्मा दिब्बचक्खुना पस्सित्व अनोकासं वज्जेत्वा ओकासे ओतरती ति। २९. "इमे पि चन्दिमसुरिये एवं महिद्धिके एवं महानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जती" (दी० नि० १/६९) ति एत्थ चन्दिमसुरियानं द्वाचत्तालीसयोजनसहस्सस्स उपरि चरणेन महिद्धिकता, तीसु दीपेसु एकक्खणे आलोककरणेन महानुभावता वेदितब्बा। एवं उपरिचरणआलोककरणेहि वा महिद्धिके तेनेव महिद्धिकतेने महानुभावे। परामसती ति। परिग्गण्हति, एकदेसे वा छुपति। परिमजती ति। समन्ततो आदासतलं विय परिमज्जति। अयं पनस्स इद्धि अभिज्ञापादकज्झानवसेनेव इज्झति, नत्थेत्थ कसिणसमापत्तिनियमो। वुत्तं हेतं पटिसम्भिदायं "इमे चन्दिमसुरिये...पे०...परिमजती ति। इध सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो चन्दिमसुरिये देते हैं, उन्हें देखने के लिये। उन्हें देखने पर क्या करना चाहिये? आधारभूत ध्यान में समापन होकर उठने के पश्चात् 'आकाश हो जाय'-यों परिकर्म करके अधिष्ठान करना चाहिये। (अधिष्ठान के साथ ही आकाश हो जाता है।) २७. किन्तु स्थविर (पूर्वोक्त त्रिपिटकधर चूडाभय स्थविर) ने कहा है-"आयुष्मन्, समापत्ति में समापन होकर (=ध्यानावस्थित होना) किसलिये? क्या उसका चित्त समाहित नहीं है ? उस (समाहित चित्त) से जिस जिस स्थान के बारे में आकाश हो जाय'–यों अधिष्ठान करता है, आकाश ही होता है।" यद्यपि ऐसा कहा है, तथापि दीवार के आर पार (गमन आदि प्रातिहार्य में बतलायी गयी विधि के अनुसार ही (इस प्रसङ्ग में भी वही अर्थ) समझना चाहिये। अर्थात्, उपाध्याय के समीप निश्रयग्रहण के समान ही। इसमें भी दोष नहीं है। २८. इसके अतिरिक्त, एकान्त में अवरोहण (=उतरने) के लिये भी. उसे दिव्य चक्षुष्मान् होना चाहिये। क्योंकि यदि वह जनसङ्कल स्थान में (जैसे) घाट पर या ग्राम के द्वार पर उतरता है, तो जनसमुदाय के समक्ष (उसकी ऋद्धि) प्रकट हो जाती है (एवं सच्चे योगी को लोकप्रियता से दूर रहना चाहिये)। इसलिये दिव्यचक्षु से देखकर जनसङ्कल स्थान को छोड़कर एकान्त में उतरता २९. "इमे पि चन्दिमसुरिये एवम्महिद्धिके एवम्महानुभावे पाणिना परामसति, परिमजति" (दी० नि० १/६९)-यहाँ बयालीस हजार योजन की ऊँचाई पर गतिशील होने में चन्द्रमा एवं सूर्य की महत्ता (महार्धिता), एवं तीनों द्वीपों को एक ही क्षण में प्रकाशित करने में उनकी महानुभावता जाननी चाहिये। अथवा, ऊँचाई पर गति करने एवं प्रकाश करने के कारण महिद्धिके, एवं उसी महाऋद्धि के कारण महानुभावे। परामसति-ग्रहण करता है, या एक भाग का स्पर्श करता है। परिमज्जति-चारों ओर से, दर्पण की सतह के समान छूता (या रगड़ता) किन्तु उसकी यह ऋद्धि अभिज्ञा के आधारभूत ध्यान के बल से ही सिद्ध होती है। यहाँ कसिणसमापत्ति का नियम नहीं है; क्योंकि पटिसम्भिदामग्ग में यह कहा गया है
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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