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________________ द्विविधनिसो ३०१ आवज्जति, आवज्जित्वा जाणेन अधिट्ठाति हत्थपासे होतू ति, हत्थपासे होति । सो निसिनको वा निपन्नको वा चन्दिमसुरिये पाणिना आमसति परामसति परिमज्जति । यथा मनुस्सा पकतिया अनिद्धिमन्तो किञ्चदेव रूपगतं हत्थपासे आमसन्ति परामसन्ति परिमज्जन्ति, एवमेव सो इद्धिमा ... पे०... परिमज्जती" (खु० नि० ५/४७१ ) ति । स्वायं यदि इच्छति गन्त्वा परामसितुं, गन्त्वा परामसति । यदि पन इधेव निसिन्नको वा निपन्नको वा परामसितुकामो होति, हत्थपासे होतू ति अधिट्ठाति, अधिट्ठानबलेन वण्टा मुत्ततालफलं विय आगन्त्वा हत्थपासे ठिते वा परामसति, हत्थं वा वड्ढेत्वा । वड्ढेन्तस्स पन किं उपादिण्णकं वड्ढति, अनुपादिण्णकं ति ? उपादिण्णकं निस्साय अनुपादिण्णकं वढति । ३०. तत्थ तिपिटकचूळनागत्थेरो आह- किं पनावुसो, उपादिण्णकं खुद्दकं पि महन्तं न होति ? ननु यदा भिक्खु तालच्छिद्दादीहि निक्खमति, तदा उपादिण्णकं खुद्दकं होति । यदा महन्तं अत्तभावं करोति, तदा महन्तं होति, महामोग्गलानत्थेरस्स विया ति । नन्दोपनन्दनागदमनपाटिहारियकथा ३१. एकस्मि कि समये अनाथपिण्डिको गहपति भगवतो धम्मदेसनं सुत्वा "स्वे, भन्ते, पञ्चहि भिक्खुसतेहि सद्धिं अम्हाकं गेहे भिक्खं गण्हथा " ति निमन्तेत्वा पक्कामि । भगवा अधिवासेत्वा तं दिवसावसेसं रत्तिभागं च वीतिनामेत्वा पच्चूससमये दससहस्सिलोकधातुं ओलोकेसि । अथस्स नन्दोपनन्दो नाम नागराजा ञाणमुखे आपाथं आगच्छि । " इन चन्द्रमा - सूर्य को ... पूर्ववत्... रगड़ता है। यहाँ, चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् चन्द्रमा सूर्य का आवर्जन करता है। आवर्जन के बाद ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करता है'हाथ की पहुँच में हो, तो हाथ की पहुँच में होता है । वह बैठे बैठे या लेटे लेटे चन्द्र एवं सूर्य को हाथ से छूता है, सम्पर्क करता है, रगड़ता है। जैसे ऋद्धि से रहित मनुष्य स्वभावतः हाथ की पकड़ में आने वाली किसी भौतिक वस्तु को छूते हैं, सम्पर्क करते हैं, रगड़ते हैं; वैसे ही वह ऋद्धिमान् ... पूर्ववत्... रगड़ता है।" (खु० नि० ५/४७१)। यदि वह स्वयं जाकर छूना चाहता है, तो जाकर छूता है । किन्तु यदि यहीं बैठे बैठे या लेटे लेटे छूना चाहता है तो अधिष्ठान करता है कि हाथ की पहुँच में आ जाय । अधिष्ठान के बल से डाल से टूटे हुए ताड़ के फल के समान आकर हाथ में स्थित हो जाने पर छूता है या हाथ को बढ़ाकर (छूता है) । किन्तु क्या बढ़ाने वाले का उपादिनक ( कर्मोपार्जित रूपी हाथ ) बढ़ता है या अनुपादिनक ? उपादिनक के आधार से अनुपादित्रक बढ़ता है। ३०. यहाँ त्रिपिटकधर चूळनागस्थविर ने कहा- " "किन्तु आयुष्मान्, क्या उपादिन्नक क्षुद्र भी और विशाल (भी) नहीं होता ? क्या जब भिक्षु ताले के छिद्र आदि से निकलता है, तब उपादिनक क्षुद्र नहीं होता, एवं जब स्वयं को विशाल बनाता है, तब महामौद्गल्यायन स्थविर के समान विशाल नहीं हो जाता !" नन्दोपनन्दनागदमन प्रातिहार्य ३१. एक समय अनाथपिण्डक गृहपति ने भगवान् की धर्मदेशना सुनकर - ' भन्ते, कल पाँच सौ भिक्षुओं के साथ हमारे घर भिक्षा ग्रहण करें' - यों निमन्त्रित कर प्रस्थान किया। भगवान्
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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