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________________ इद्धिविधनिद्देसो २९९ ठानं परिच्छिन्दित्वा परिकम्मं कत्वा वुत्तनयेनेव अधिट्ठातब्बं। सचे निपन्नो गन्तुकामो होति मञ्चप्पमाणं, सचे पदसा गन्तुकामो होति मग्गप्पमाणं ति एवं यथानुरूपं ठानं परिच्छिन्दित्वा वुत्तनयेनेव ‘पथवी होतू' ति अधिट्ठातब्बं, सह अधिट्ठानेन पथवी येव होति। तत्रायं पाळि "आकासे पि पल्लङ्केन कमति, सेय्यथापि पक्खीसकुणो ति, पकतिया पथवीकसिणसमापत्तिया लाभी होति, आकासं आवजति, आवजित्वा आणेन अधिट्ठाति ‘पथवी होतू' ति, पथवी होति। सो आकासे अन्तलिक्खे चङ्कमति पि तिट्ठति पि निसीदति पि सेय्यं पि कप्पेति। यथा मनुस्सा पकतिया अनिद्धिमन्तो पथवियं चङ्कमन्ति पि..पे०..सेय्यं पि कप्पेन्ति; एवमेव सो इद्धिमा चेतोवसिप्पत्तो आकासे अन्तलिक्खे चङ्कमति पि...पे०...सेय्यं पि कप्पेती" (खु० नि० ५/४७१) ति। २६. आकासे गन्तुकामेन च भिक्खुना दिब्बचक्खुलाभिना पि भवितब्बं । कस्मा? अन्तरे उतुसमुट्ठाना वा पब्बतरुक्खादयो होन्ति, नागसुपण्णादयो वा उसूयन्ता मापेन्ति, तेसं दस्सनत्थं । ते पन दिस्वा किं कातब्बं ति? पादकज्झानं समापजित्वा वुट्ठाय 'आकासो होतू' ति परिकम्मं कत्वा अधिट्ठातब्बं।। २७. थेरो पनाह-"समापत्तिसमापज्जनं आवुसो, किमत्थियं? ननु समाहितमेवस्स चित्तं? तेन यं यं ठानं 'आकासो होतू' ति अधिट्टाति, आकासो येव होती" ति। किञ्चापि एवमाह, अथ खो तिरोकुड्डपाटिहारिये वुत्तनयेनेव पटिपज्जितब्बं। आकाशगमन आदि प्रतिहार्य २५. पल्लङ्केन कमति-पद्मासन (=पालथी) लगाये हुए जाता है। पक्खी सकुणोपंखों से युक्त शकुन (पक्षी)। ऐसा करने के अभिलाषी को पृथ्वीकसिण में समापन होकर उठने के पश्चात् यदि बैठे बैठे जाने की इच्छा हो तो पद्मासन लगाने पर स्थान की सीमा निर्धारित कर, परिकर्म करके उक्त प्रकार से ही अधिष्ठान करना चाहिये। यदि सोते हुए जाना चाहे तो चारपाई भर की, यदि पैदल जाना चाहे तो मार्ग भर (स्थान की सीमा निर्धारित करना चाहिये)। यों, उपयुक्त स्थान की सीमा निर्धारित कर, उक्त प्रकार से ही 'पृथ्वी हो जाय'-ऐसा अधिष्ठान करना चाहिये। अधिष्ठान करते ही (आकाश) पृथ्वी हो जाता है। यहाँ यह पालि है "आकाश में भी स्वस्तिकासन लगाये हुए जाता है, जैसे कि पंखों वाला पक्षी। स्वभावत: पृथ्वीकसिण समापत्ति का लाभी होता है। आकाश का आवर्जन करता है। आवर्जन करने के बाद ज्ञान द्वारा अधिष्ठान करता है-'पृथ्वी हो जाय', तो पृथ्वी हो जाता है। वह आकाश में, अन्तरिक्ष में चलता फिरता भी है, खड़ा भी होता है, बैठता भी है, सोता भी है। जैसे ऋद्धिरहित मनुष्य स्वभावतः पृथ्वी पर घूमते फिरते भी हैं ...पूर्ववत्... सोते भी हैं; वैसे ही चित्त को वश में कर चुका वह ऋद्धिमान् आकाश में, अन्तरिक्ष में घूमता फिरता भी है ...पूर्ववत्... सोता भी है।" (खु० ५/४७१)। २६. आकाश में जाने के अभिलाषी भिक्षु को दिव्यचक्षु का लाभी भी होना चाहिये। क्यों? बीच में ऋतु से समुत्थित जो पर्वत, वृक्ष आदि होते हैं, या नाग, गरुड़ आदि जिन्हें ईर्ष्यावश बना १. थेरो ति। पुब्बं वुत्तो तिपिटकचूळाभयत्थेरो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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