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________________ इद्धिविधनिद्देसो २९१ गमिस्सामा' ति वदन्ती" ति। भगवा. आह-"कुहिं पन ते, मोग्गलान, जेट्ठभाता धम्मसेनापती" ति? "सङ्कस्सनगरे, भन्ते" ति। "मोग्गल्लान, मं दट्टकामा स्वे सङ्कस्सनगरं आगच्छन्तु, अहं स्वे महापवारणपुण्णमासि-उपोसथदिवसे सङ्कस्सनगरे ओतरिस्सामी" ति। "साधु, भन्ते" ति थेरो दसबलं वन्दित्वा आगतमग्गेनेव ओरुह्य मनुस्सानं सन्तिकं सम्पापुणि । गमनागमनकाले च यथा नं मनुस्सा पस्सन्ति, एवं अधिट्ठासि। इदं तावेत्थ महामोग्गल्लानत्थेरो आविभावपाटिहारियं अकासि। सो 'एवं आगतो' तं पवत्तिं आरोचेत्वा, "दूरं ति सजं अकत्वा कतपातरासा व निक्खमथा" ति आह। भगवा सक्कस्स देवरो आरोचेसि-"महाराज, स्वे मनुस्सलोकं गच्छामी" ति। देवराजा विस्सकम्मं आणापेसि-"तात, स्वे भगवा मनुस्सलोकं गन्तुकामो, तिस्सो सोपानपन्तियो मापेहि-एकं कनकमयं, एकं रजतमयं, एकं मणिमयं" ति। सो तथा अकासि। भगवा दुतियदिवसे सिनेरुमुद्धनि ठत्वा पुरत्थिमलोकधातुं ओलोकेसि, अनेकानि चक्कवाळसहस्सानि विवटानि हुत्वा एकङ्गणं विय पकासिंसु। यथा च पुरत्थिमेन, एवं पच्छिमेन पि उत्तरेन पि दक्खिणेन पि सब्बं विवटमद्दस। हेट्ठा पि याव अवीचि, उपरि याव अकनिट्ठभवनं, ताव अद्दस्स। तं दिवसं किर लोकविवरणं' नाम अहोसि। मनुस्सा पि देवे पस्सन्ति, देवा पि मनुस्से। तत्थ नेव मनुस्सा उद्धं उल्लोकेन्ति, न देवा अधो ओलोकेन्ति, सब्बे सम्मुखा व अजमलं पस्सन्ति। भगवा मज्झे मणिमयेन सोपानेन ओतरति, छकामावचरदेवा वामपस्से कनकमयेन, ही जायेंगे।" भगवान् ने पूछा-"परन्तु, मौद्गल्यायन! तुम्हारे ज्येष्ठ भ्राता धर्मसेनापति कहाँ हैं?" "भन्ते! सांकाश्यं नगर में।" "मौद्गल्यायन! मेरे दर्शनार्थी कल सांकाश्य नगर में आवें, मैं कल महाप्रवारणा की पूर्णिमा (को होने वाले) उपोसथ के दिन सांकाश्य नगर में उतरूंगा।" "बहुत अच्छा, भन्ते!" यों कहकर स्थविर ने दशबल की वन्दना की एवं जिस मार्ग से आये थे उसी से पुनः लौटकर मनुष्यों के समीप पहुँचे। (उन्होंने) ऐसा अधिष्ठान किया कि मनुष्य उन्हें आते जाते हुए देखें। यहाँ, महामौद्गल्यायन स्थविर ने यह आविर्भाव प्रातिहार्य किया था। इस प्रकार आये हुए उन्होंने वह (सब वृत्तान्त) बतलाकर कहा-दूरी का विचार न कर, जलपान (प्रात:कालीन आहार) करके चल दें। (४) __ भगवान् ने देवराज शक्र से कहा-"महाराज कल मनुष्य-लोक जाऊँगा।" देवराज ने विश्वकर्मा को आज्ञा दी-तात! भगवान् कल मनुष्य-लोक जाना चाहते हैं। तीन सोपान-पंक्तियाँ निर्मित करो, एक स्वर्णमय, एक रजतमय और एक मणिमय।" उसने वैसा ही किया। ___ भगवान् ने दूसरे दिन सुमेरु पर्वत के शिखर पर खड़े होकर पूर्वी लोकधातु की ओर देखा। (देखते ही) हजारों चक्रवाल विवृत (स्पष्ट) होकर एक आंगन के रूप में प्रकाशित हो उठे। जैसे पूर्व में, वैसे पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में भी सर्वत्र स्पष्ट दिखलायी दिया। नीचे अवीचि तथा ऊपर ब्रह्मलोक तक दिखलायी दिया। उस दिन को 'लोकविवरण' कहा गया; (क्योंकि) मनुष्य भी देवों १. अनेकसतसहस्ससङ्खस्स ओकासलोकस्स तन्निवासिसत्तलोकस्स च विवटभावकरणं पाटिहारियं लोक विवरणं नाम।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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