SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९२ विसुद्धिमग्गो सुद्धावासा च महाब्रह्मा च दक्खिणपस्से रजतमयेन। देवराजा पत्तचीवरं अग्गहेसि, महाब्रह्मा तियोजनिकं सेतच्छत्तं, सुयामो बालवीजनिं, पञ्चसिखो गन्धब्बपुत्तो तिगावुतमत्तं वेळुवपण्डुवीणं गहेत्वा तथागतस्स पूजं करोन्तो ओतरति। तं दिवसं दिस्वा बुद्धभावाय पिहं अनुप्पादेत्वा ठितसत्तो नाम नत्थि। इदमेत्थ भगवा आविभावपाटिहारियं अकासि। (४) अपि च-तम्बपण्णिदीपे तळङ्गरवासी धम्मदिन्नत्थेरो पि तिस्समहाविहारे चेतियङ्गणम्हि निसीदित्वा "तीहि, भिक्खवे, धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु अपण्णक-पटिपदं पटिपन्नो होती" (अं० नि० १/१०६) ति अपण्णकसुत्तं कथेन्तो हट्ठामुखं वीजनिं अकासि याव अवीचितो एकङ्गणं अहोसि, ततो उपरिमुखं अकासि याव ब्रह्मलोका एकङ्गणं अहोसि। थेरो निरयभयेन तजेत्वा सग्गसुखेन च पलोभेत्वा धम्म देसेसि। केचि सोतापन्ना अहेसुं, केचि सकदागामी, अनागामी, अरहन्तो ति। (५) १७. तिरोभावं कातुकामो पन आलोकं वा अन्धकारं करोति, अपटिच्छन्नं वा पटिच्छन्नं, आपाथं वा अनापाथं करोति। कथं? अयं हि यथा अपटिच्छन्नो पि समीपे ठितो पि वा न दिस्सति, एवं अत्तानं वा परं वा कत्तुकामो पादकज्झानतो वुट्ठाय 'इदं आलोकट्ठानं अन्धकार होतू' ति वा, 'इदं अपटिच्छन्नं पटिच्छन्नं होतू' ति वा, 'इदं आपाथं अनापाथं होतू' ति वा आवज्जित्वा परिकम्मं कत्वा वुत्तनयेनेव अधिट्टाति, सह अधिट्टानचित्तेन यथाधिद्वितमेव होति, परे समीपे ठिता पि न पस्सन्ति, सयं पि अपस्सितुकामो न पस्सति। को देखते थे और देव मनुष्यों को। उस समय न तो मनुष्य ऊपर देखते थे, न देवता नीचे। सब जैसे सम्मुख खड़े हों-इस तरह एक-दूसरे को देखते थे। __ भगवान् बीचवाले मणिमय सोपान (सीढ़ी) से नीचे उतर रहे थे, छह कामावचर देवता बायीं ओर के स्वर्णमय से, शुद्धावास एवं महाब्रह्मा दाहिनी ओर के रजतमय से। देवराज पात्रचीवर लिये हुए थे। महाब्रह्मा तीन योजन (परिधि) वाला श्वेतछत्र, सुयाम चंवर, गन्धर्वपुत्र पञ्चशिख तीन गव्यूति लम्बी वेणुव नामक पाण्डु (रंग की) वीणा लेकर तथागत की पूजा करते हुए उतर रहे थे। उस दिन भगवान् को देखने के बाद ऐसा कोई सत्त्व नहीं रह गया था, जिसे बुद्ध बनने का अभिलाष उत्पन्न न हुआ हो। यहाँ भगवान् ने यह आविर्भाव-प्रातिहार्य किया था। (४) और भी-ताम्बपर्णी द्वीप में तलङ्गरवासी धम्मदिन स्थविर ने भी तिष्य महाविहार के चैत्य के आँगन में बैठकर "भिक्षुओ, तीन बातों से युक्त भिक्षु अपर्णक (अविरुद्ध-अनुकूल) मार्ग पर चलने वाला होता है"-यों अपर्णक सूत्र का पाठ करते हुए पंखे को नीचे की ओर किया, तो अवीचि तक एक आँगन (जैसा) हो गया। तत्पश्चात् (पंखे को) ऊपर की ओर किया, तो ब्रह्मलोक तक एक आँगन हो गया। स्थविर ने (श्रोताओं में) नरक के प्रति भय एवं स्वर्ग के प्रति प्रलोभन उत्पन्न करते हुए धर्म की देशना की। तब कुछ लोग स्रोतआपन्न हुए, कुछ सकृदागामी, कुछ अनागामी एवं कुछ अर्हत्। (५) १७. किन्तु तिरोभाव करने की इच्छा वाला (योगी) प्रकाश को अन्धकार में बदल देता है, अप्रतिच्छन्न को प्रतिच्छन्न या दृश्य को अदृश्य कर देता है। कैसे? यदि वह स्वयं या दूसरे के लिये ऐसा करना चाहता है जिससे कि अप्रतिच्छन्न भी समीप स्थित भी दिखायी न दे, तो
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy