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विसुद्धिमग्गो
अद्दस। अथेकेन पादेन पंथवीतलं अक्कमित्वा दुतियं युगन्धरपब्बते पतिट्ठापेत्वा पुन पुरिमपादं उद्धरित्वा सिनेरुमत्थकं अक्कमित्वा तत्थ पण्डुकम्बलसिलातले वस्सं उपगन्त्वा सन्निपतितानं दससहस्सचक्कवाळदेवतानं आदितो पट्ठाय अभिधम्मकथं आरभि । भिक्खाचारवेलाय निम्मितबुद्धं मापेसि। सो धम्मं देसेति । (२)
भगवा नागलतादन्तकट्टं खादित्वा अनोतत्तदहे मुखं धोवित्वा उत्तरकुरूसु पिण्डपातं गहेत्वा अनोतत्तदहे परिभुञ्जति । सारिपुत्तत्थेरो तत्थ गन्त्वा भगवन्तं वृन्दति । भगवा 'अज्ज एत्तकं धम्मं देसेसिं' ति थेरस्स नयं देति । एवं तयो मासे अब्बोच्छिन्ने अभिधम्मकथं कथेसि। तं सुत्वा असीतिकोटिदेवतानं धम्माभिसमयो अहोसि । (३)
यमकपाटिहारे सन्निपतिता पि द्वादसयोजना परिसा 'भगवन्तं पस्सित्वा व गमिस्सामा ' ति खन्धावारं बन्धित्वा अट्ठासि । तं चूळअनाथपिण्डिकसेट्ठी येव सब्बपच्चयेहि उपट्टासि । मनुस्सा 'कुहिं भगवा ति जाननत्थाय अनुरुद्धत्थेरं याचिंसु । थेरो आलोकं वड्डेत्वा अस दिब्बेन चक्खुना तत्थ वस्सूपगतं भगवन्तं दिस्वा आरोचेसि ।
ते भगवतो वन्दनत्थाय महामोग्गल्लानत्थेरं याचिंसु । थेरो परिसमज्झे येव महापथवियं निम्मुज्जित्वा सिनेरुपब्बतं निब्बिज्झित्वा तथागतपादमूले भगवतो पादे वन्दमानो व उम्मुज्जित्वा भगवन्तं एतदवोच – “ जम्बुदीपवासिनो, भन्ते, 'भगवतो पादे वन्दित्वा पस्सित्वा व
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से) देखा - ' त्रायस्त्रिँश भवन गये ।' तब एक चरण को पृथ्वी पर एवं दूसरे को युगन्धर पर्वत पर प्रतिष्ठित किया । पुनः अगला चरण उठाकर सुमेरु के शिखर पर रखा, वहाँ पाण्डुकम्बल शिला पर वर्षावास करते हुए, दस हजार चक्रवालों (लोकों) से आये देवताओं को अभिधर्म का आदि से उपदेश देना आरम्भ किया। भिक्षाटन के समय, निर्मित बुद्ध को बनाया। वह ( निर्मित बुद्ध ही) उपदेश देते थे। (२)
भगवान् नागलता (ताम्बूल) की दातौन कर, अनवतप्तहृद (मानसरोवर) में मुख धोकर, उत्तरकुरु में भिक्षा ग्रहण कर अनवतप्तहद पर ( आकर ) भोजन करते थे। सारिपुत्र स्थविर वहाँ जाकर भगवान् की वन्दना किया करते थे। भगवान् 'आज इतने धर्म की देशना की' - यों स्थविर को (देशना की) विधि बतलाते थे। यों, तीन महीने तक निरन्तर देशना की थी। उसे सुनकर अस्सी करोड़ देवताओं को धर्म का वास्तविक अर्थबोध हुआ । (३)
यमक - प्रातिहार्य के समय एकत्र हुई बारह योजन ( तक फैली हुई) परिषद् भी 'भगवान् को देखकर ही जायेंगे' -यों (निश्चयकर) स्कन्धावार (तम्बू) बाँधकर टिकी हुई थी। उसकी सभी आवश्यकताओं को चूड़ अनाथपिण्डिक श्रेष्ठी (= अनाथपिण्डक के अनुज) ही पूरा कर रहे थे । मनुष्यों ने 'भगवान् कहाँ हैं' यह जानने के लिये अनुरुद्ध स्थविर से याचना की। स्थविर ने प्रकाश (ज्ञान की परिधि ) बढ़ाकर दिव्यचक्षु से देखा । वहाँ वर्षावास कर रहे भगवान् को देखकर बतलाया । उन (मनुष्यों) ने भगवान् की वन्दना करने के लिये महामौद्गल्यायन स्थविर से प्रार्थना की। परिषद् के मध्य से ही स्थविर पृथ्वी में प्रवेश कर गये। सुमेरु पर्वत को भेदकर, तथागत के चरणों के पास, 'भगवान् की चरण-वन्दना करते हुए ही, निकलकर ऊपर आये एवं भगवान् से यह कहा - " भन्ते ! जम्बूद्वीप के निवासी कहते हैं कि भगवान् के चरणों की वन्दना करके