SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विसुद्धिमग्गो भगवा “न सज्झायं कातुं असक्कोन्तो मम सासने अभब्बो नाम होति, मा सोचि, भिक्खू" ति तं बाहायं गहेत्वा विहारं पविसित्वा इद्धिया पिलोतिकखण्डं अभिनिम्मिनित्वा अदासि—“हन्द भिक्खु, इमं परिमज्जन्तो 'रजोहरणं' 'रजोहरणं' ति पुनप्पुनं सज्झायं करोही" ति। तस्स तथा करोतो तं काळवण्णं अहोसि। सो “परिसुद्धं वत्थं, नत्थेत्थ दोसो, अत्तभावस्स पनायं दोसो" ति स पटिलभित्वा पञ्चसु खन्धेसु जाणं ओतारेत्वा विपस्सनं वड्ढेत्वा अनुलोमगोत्र भुसमीपं पापेसि । अथस्स भगवा ओभासगाथा अभासि— "रागो रजो न च पन रेणु वुच्चति रागस्सेतं अधिवचनं रजो ति । एतं रजं विप्पजहित्वा पण्डिता विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने ॥ दोसो रजो न च पन रेणु वुच्चति दोसस्सेतं अधिवचनं रजोति । एतं रजं विप्पजहित्वा पण्डिता विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने ॥ मोहो रजो न च पन रेणु वुच्चति मोहस्सेतं अधिवचनं रजो ति । एतं रजं विप्पजहित्वा पण्डिता विहरन्ति ते विगतरजस्स सासने ।" ति (खु० नि० ४ : १/४४४) तस्स गाथापरियोसाने चतुपटिसम्भिदाछळभिज्ञपरिवारा नव लोकुत्तरंधम्मा हत्थगता व अहेसुं । सत्था दुतियदिवसे जीवकस्स गेहं अगमासि सद्धिं भिक्खुसङ्गेन । अथ दक्खिणोद २८६ चूड़पन्थक द्वार पर खड़ा होकर रो रहा था । भगवान् ने दिव्यचक्षु से देख, उसके पास आकर कहा - किसलिये रोते हो ?" उसने वह सब बात बतला दी। भगवान् ने "पारायण न करने वाला भिक्षु मेरे शासन में अयोग्य नहीं होता, अतः शोक मत करो " - यों कहकर उसे बाँह से पकड़कर विहार में प्रवेश कराया एवं ऋद्धि द्वारा कपड़े के टुकड़े को निर्मित कर, यह कहकर दिया - " भिक्षु, इसे रगड़ते हुए 'रजोहरण' ( धूल का दूर होना), 'रजोहरण' यों बार बार बोलते रहो।" जब उसने वैसा किया, तब वह टुकड़ा काले रंग का हो गया। वह समझ गया कि वस्त्र तो परिशुद्ध है, इसमें कोई दोष नहीं है, यह तो अपना ही दोष है।" तत्पश्चात् पाँचों स्कन्धों का ज्ञान प्राप्त कर, विपश्यना को बढ़ाकर अनुलोम ज्ञान एवं गोत्रभू ज्ञान के समीप पहुँच गया। तब भगवान् ने (सत्य को) प्रकाशित करने वाली गाथी कही ("बुद्ध-शासन में ) राग ही रज (धूल) है, रेणु को रज नहीं कहा जाता । 'रज' - यह राग का ही अधिवचन है। पण्डितजन इसी रज को छोड़कर विगतरज (बुद्ध) के शासन में साधना करते हैं। " द्वेष ही रज है, रेणु को रज नहीं कहा जाता । 'रज' - यह द्वेष का ही अधिवचन है। वे पण्डित इसी रज को छोड़कर विगतरज के शासन में विहार करते हैं । " मोह ही रज है, रेणु को रज नहीं कहा जाता। 'रज' - यह मोह का ही अधिवचन है। पण्डितजन इसी रज को छोड़कर विगतरज के शासन में विहार करते हैं। " ( खु०नि० ४:१/४४४) " उनकी (यह) गाथा समाप्त होते ही (चूड़पन्थक को) चार प्रतिसम्भिदाओं, छह अभिज्ञाओं के साथ नौ लोकोत्तर धर्म हस्तगत हो गये ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy