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________________ इद्धिविधनिस कावसाने यागुया दिय्यमानाय हत्थेन पत्तं पिदहि । जीवको " किं, भन्ते" ति पुच्छि । “विहारे को भिक्खु अत्थी" ति । सो पुरिसं पेसेसि - " गच्छ, अय्यं गहेत्वा सीघं एही " ति । विहारतो निक्खन्ते पन भगवति, २८७ "सहस्सक्खत्तुमत्तानं निम्मिनित्वान पन्थको । निसीदम्बवने रम्मे याव कालप्पवेदना" ति ॥ (खु० २/४२३) अथ सो पुरिसो गन्त्वा कासावेहि एकपज्जोतं आरामं दिस्वा आगन्त्वा " भिक्खूहि भरितो, भन्ते, आरामो, नाहं जानामि कतमो सो अय्यो" ति आह । ततो नं भगवा आह" गच्छ तत्थ पठमं पस्ससि, तं चीवरकण्णे गहेत्वा 'सत्था तं आमन्तेती' ति वत्वा आनेही " ति। सो तं गन्त्वा थेरस्सेव चीवरकण्णे अग्गहेसि । तावदेव सब्बे पि निम्मिता अन्तरधायिंसु । थेरो “गच्छ त्वं” ति तं उय्योजेत्वा मुखधोवनादिसरीरकिच्चं निट्ठपेत्वा पठमतरं गन्त्वा पत्तासने निसीदि । इदं सन्धाय वुत्तं - "यथा आयस्मा चूळपन्थको " ति । १३. तंत्र ये ते बहू निम्मिता ते अनियमेत्वा निम्मितत्ता इद्धिमता सदिसा व होन्ति । ठान - निसज्जादीसु वा भासित- तुम्ही भावादीसु वा यं यं इद्धिमा करोति, तं तदेव करोन्ति । सचे पन नानावण्णे कातुकामो होति, केचि पठमवये, केचि मज्झिमवये, केचि पच्छिमवये, तथा दीर्घकेसे, उपड्डमुण्डे, मुण्डे, मिस्सकेसे, उपढरत्तचीवरे, पण्डुकचीवरे, पदभाण-धम्मकथा शास्ता दूसरे दिन भिक्षुसङ्घ के साथ जीवक के घर गये। दक्षिणोदक (दान देते समय सङ्कल्प के लिये हाथ में लेकर गिराया जाने वाला जल) के बाद जब यवागू दिया जाने लगा, तब (भगवान् ने) पात्र को हाथ से ढँक दिया। जीवक ने पूछा - "क्यों, भन्ते !" "विहार में एक भिक्षु (बाकी रह गया) है।" उसने (किसी ) पुरुष को भेजा - " आर्य को लेकर शीघ्र आओ।" किन्तु भगवान् के विहार से निकल जाने पर - (ऋद्धि द्वारा) स्वयं को हजार रूपों में निर्मित कर, चूड़पन्थक कहे गये समय तक रम्य आम्रवन में बैठे रहे ॥ उस पुरुष ने आकर मात्र काषाय (वस्त्रों की आभा) से ही प्रकाशित विहार को देखा एवं लौटकर कहा - " भन्ते, विहार तो भिक्षुओं से भरा है। मैं नहीं जानता कि वह आर्य कौनसे हैं।" तब भगवान् ने उससे कहा - " जाओ, जिसे पहले-पहल देखो, उसके चीवर के छोर को पकड़कर 'आपको शास्ता बुला रहे हैं' कह कर ले आओ।" उसने जाकर स्थविर के ही चीवर को पकड़ लिया। उसी समय सभी निर्मित (रूप) अन्तर्हित हो गये। स्थविर ने 'तुम जाओ' यों कहकर उसे भेज दिया एवं मुख प्रक्षालन आदि शारीरिक कृत्य निपटा कर (दूत की अपेक्षा ) पहले ही पहुँच कर बिछाये आसन पर बैठ गये। इसी के सन्दर्भ में कहा गया है-" जैसे आयुष्मान् चूड़पन्थक।" १३. इनमें, जो अनेक (रूप) निर्मित होते हैं, वे नियम ('ये ऐसे ही हों' - इस विचार ) के अनुसार निर्मित न किये जाने पर, ऋद्धिमान् (निर्माता) के सदृश ही होते हैं। खड़ा होना, बैठना आदि या चुप रहना-बोलना आदि जो-जो ऋद्धिमान् करता है, उसे वैसा-वैसा ही करते हैं । किन्तु (योगी) नाना रूपों का निर्माण करना चाहता है-किसी को प्रथम वय में, किसी को मध्य वय में, किसी को पश्चिम (ढलती) वय में, वैसे ही यदि लम्बे बाल, आधे कटे बाल, मुण्डित, मिश्रित
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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