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________________ २६५ इद्धिविधनिद्देसो चित्तस्स चुद्दस परिदमनाकारा २. तत्थ ‘एको पि हुत्वा बहुधा होती' ति आदिकं इद्धिविकुब्बनं कातुकामेन आदिकम्मिकेन योगिना ओदातकसिणपरियन्तेसु अट्ठसु कसिणेसु अट्ठ अट्ठ समापत्तियो निब्बत्तेत्वा–१. कसिणानुलोमतो, २. कसिणपटिलोमतो, ३. कसिणानुलोमपटिलोमतो, ४. झानानुलोमतो, ५. झानपटिलोमतो, ६. झानानुलोमपटिलोमतो, ७. झानुक्कन्तिको, ८. कसिणुक्कन्तिकतो, ९. झानकसिणुक्कन्तिकतो, १०. अङ्गसङ्कन्तितो, ११. आरम्मणसङ्कन्तितो, १२. अङ्गारम्मणसङ्कन्तितो, १३. अङ्गववत्थापनतो, १४. आरम्मणववत्थापनतो-ति इमेहि चुद्दसहि आकारेहि चित्तं परिदमेतब्बं । ३. कतमं पनेत्थ कसिणानुलोमं...पे०...कतमं आरम्मणववत्थापनं ति? इध भिक्खु पथवीकसिणे झानं समापज्जति, ततो आपोकसिणे ति एवं पटिपाटिया अट्ठसु कसिणेसु सत्तक्खत्तुं पि सहस्सक्खत्तुं पि समापज्जति, इदं कसिणानुलोमं नाम। ओदातकसिणतो पन पट्ठाय तथैव पटिलोमक्कमेन समापज्जनं कसिणपटिलोमं नाम। पथवीकसिणतो पट्टाय याव ओदातकसिणं, ओदातकसिणतो पि पट्टाय याव पथवीकसिणं ति एवं अनुलोमपटिलोमवसेन पुनप्पुनं समापज्जनं कसिणानुलोमपटिलोमं नाम। (१-३) - इत्यादि प्रकार से-१. ऋद्धिविध, २. दिव्यश्रोत्रधातुज्ञान, ३. चेत:पर्यायज्ञान, ४. पूर्वनिवासानुस्मृतिज्ञान, ५. सत्त्वों की च्युति-उत्पत्ति का ज्ञान-ये पाँच लौकिक अभिज्ञाएँ बतलायी गयी हैं। चित्तदमन के चतुर्दश प्रकार २. इनमें, 'एक होकर भी अनेक होता है' आदि (प्रकार से वर्णित ऋद्धि द्वारा) रूपान्तरण (विकुर्वण) करने की इच्छा वाले प्रारम्भिक योगी को अवदातकसिण पर्यन्त आठ कसिणों में आठ समापत्तियाँ उत्पन्न कर इन चौदह प्रकारों से चित्त का दमन यों करना चाहिये-१. कसिणों के अनुलोम से, २. कसिणों के प्रतिलोम से, ३. कसिणों के अनुलोम-प्रतिलोम से, ४. ध्यान के अनुलोम से, ५. ध्यान के प्रतिलोम से, ६. ध्यान के अनुलोम-प्रतिलोम से, ७. ध्यान के अतिक्रमण से, ८. कसिणों के अतिक्रमण से, ९. ध्यान एवं कसिणों के अतिक्रमण से, १०. अङ्गों के अतिक्रमण से, ११. आलम्बन के अतिक्रमण से, १२. अङ्गों एवं आलम्बन के अतिक्रमण से, १३. अङ्गों के व्यवस्थापन से, और १४. आलम्बन के व्यवस्थापन से। ३. यहाँ 'कसिणों के अनुलोम...पूर्ववत्...आलम्बन के व्यवस्थापन से' का क्या अर्थ होता यहाँ कोई भिक्षु पहले पृथ्वीकसिण में ध्यान प्राप्त करता है, तत्पश्चात् अप-कसिण में। यों क्रम से आठ कसिणों में सौ बार भी, हजार बार भी समाहित होता है। इसे (ही) 'कसिणानुलोम' कहा जाता है। किन्तु अवदातकसिण से लेकर उसी प्रकार (पृथ्वीकसिण तक) प्रतिलोम क्रम से समाहित होना ‘कसिणप्रतिलोम' है। पृथ्वीकसिण से लेकर अवदातकसिण तक, पुनः अवदातकसिण से लेकर पृथ्वीकसिण तक-यों अनुलोम-प्रतिलोम (क्रम) से बार बार समाधि होना ‘कसिणानुलोम-प्रतिलोम' है। (१/३)
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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