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________________ १२. इद्धिविधनिद्देसो द्वादसमो परिच्छेदो अभिजाकथा १. इदानि यासं लोकिकाभिज्ञानं वसेन अयं समाधिभावना "अभिज्ञानिसंसा" ति वुत्ता, ता अभिञा सम्पादेतुं यस्मा पथवीकसिणादीसु अधिगतचतुत्थज्झानेन योगिना योगो कातब्बो। एवं हिस्स सा समाधिभावना अधिगतानिसंसा चेव भविस्सति थिरतरा च, सो अधिगतानिसंसाय थिरतराय समाधिभावनाय समन्नागतो सुखेनेव पञ्आभावनं सम्पादेस्सति। तस्मा' अभिज्ञाकथं ताव आरभिस्साम। भगवता हि अधिगतचतुत्थज्झानसमाधीनं कुलपुत्तानं समाधिभावनानिसंसदस्सनत्थं चेव उत्तरुत्तरिपणीतपणीतधम्मदेसनत्थं च “सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते इद्धिविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति–एको पि हुत्वा बहुधा होती" (दी० नि० १/८७) ति आदिना नयेन १. इद्धिविधं, २. दिब्बसोतधातुजाणं, ३. चेतोपरियजाणं, ४. पुब्बेनिवासानुस्सतित्राणं, ५. सत्तानं चुतूपपाते जाणं ति पञ्च लोकिकाभिजा वुत्ता। १२. ऋद्धिविधनिर्देश द्वादश परिच्छेद अभिज्ञावर्णन १. (ग्यारहवें परिच्छेद में) लौकिक अभिज्ञाओं के प्रसङ्ग में कहा गया है कि यह समाधि भावना अभिज्ञारूपी माहात्म्य (आनृशंस्य) वाली है; क्योंकि उस अभिज्ञा की प्राप्ति के लिये पृथवीकसिण आदि में चतुर्थ ध्यान प्राप्त योगी को योग करना चाहिये, तभी उसकी समाधिभावना माहात्म्यसम्पन्न एवं स्थिरतर होगी। और वह योगी माहात्म्यसम्पन्न तथा स्थिरतर समाधि भावना से युक्त होकर प्रज्ञा भावना को सुखपूर्वक ही पूर्ण कर लेगा-इसलिये अब अभिज्ञा का वर्णन प्रारम्भ करेंगे। भगवान् द्वारा चतुर्थ ध्यान-समाधिप्राप्त कुलपुत्रों की समाधि भावना का माहात्म्य दिखाने के लिये, एवं उत्तरोत्तर श्रेष्ठ धर्म की देशना करने के लिये "जब उसका चित्त यों समाहित, परिशुद्ध, प्रभास्वर निर्दोष, क्लेशरहित, मृदु, कर्मण्य, स्थिर एवं अविचल स्थिति को प्राप्त हो चुका होता है, तब (योगी) ऋद्धिविध (अलौकिक चमत्कार) की ओर स्वचित्त को ले जाता है, झुकाता है, ऋद्धि के अनेक प्रकारों का साक्षात्कार करता है, एक होते हुए भी अनेक (रूपों में प्रकट) होता है।" (दी० नि० १/८७) १. तस्मा ति। यस्मा समाधिभावनाय आनिसंसलाभो थिरतरता, सुखेनेव च पञ्जाभावना इज्झति, तस्मा पञ्जाभावनाय ओकासे सम्पत्ते पि, अभिज्ञाकथं ताव आरभिस्सामा ति अधिप्पायो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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