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________________ २६२ विसुद्धिमग्गो ३०. ये पन अट्ट समापत्तियो निब्बत्तेत्वा अभिजापादकं झानं समापज्जित्वा समापत्तियो वुट्ठाय ‘एको पि हुत्वा बहुधा होती' ति वुत्तनया अभिज्ञायो पन्थेन्ता निब्बत्तेन्ति तेसं सति आयतने अभिज्ञापदट्ठानत्ता अप्पनासमाधिभावना अभिसञानिसंसा होति । तेनाह भगवा"सो यस्स यस्स अभिञासच्छिकरणीयस्स धम्मस्स चित्तं अभिनिन्नामेति अभिज्ञासच्छिकिरियाय, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणाति सति सति आयतने" (म० नि० ३/१५९) ति। (३) ३१. ये अपरिहीनज्झाना 'ब्रह्मलोके निब्बत्तिस्सामा' ति ब्रह्मलोकूपपत्तिं पत्थेन्ता अपत्थयमाना वा पि पुथुजना समाधितो न परिहायन्ति, तेसं भवविसेसावहत्ता अप्पनासमाधिभावना भवविसेसानिसंसा होति। तेनाह भगवा-"पठमं झानं परित्तं भावेत्वा कत्थ उपपज्जन्ति ? ब्रह्मपारिसज्जानं देवानं सहब्यतं उपपज्जन्ती" (अभि० २/५०६) ति आदि। (४) ३२. उपचारसमाधिना पि पन कामावचरसुगतिभवविसेसं आवहति येव। ये पन अरिया अट्ठसमापत्तियो निब्बत्तेत्वा निरोधसमापत्तिं समापजित्वा सत्त दिवसानि अचित्ता हत्वा “दिद्वे व धम्मे निरोधं निब्बानं पत्वा सुखं विहरिस्सामा" ति समाधि भावेन्ति, तेसं अप्पनासमाधिभावना निरोधानिसंसा होति । तेनाह-"सोळसहि जाणचरियाहि नवहि समाधिचरियाहि वसीभावता पा निरोधसमापत्तिया आणं" (खु० नि० ५/४) ति। (५) है-"भिक्षुओ, समाधि की भावना करो। भिक्षुओ, जो समाहित है वही यथार्थ को जानता है।" (सं० नि० २१७५९)। (२) ३०. अभिज्ञा-माहात्म्य-किन्तु जो आठ समापत्तियों को उत्पन्न करने के बाद अभिज्ञा के कारण स्वरूप ध्यान में लगकर एवं उससे उठकर 'एक होते हुए भी बहत होता है'-इस प्रकार बतलायी गयी अभिज्ञाओं को इच्छानुसार उत्पन्न करते हैं, उनके लिये अर्पणा-समाधि-भावना (अभिज्ञाओं का लाभ देने वाली अर्थात्) अभिज्ञा-माहात्म्य वाली होती है, क्योंकि वह, अभिज्ञाओं की उत्पत्ति का अवसर होने पर, उनका आसन्न कारण होती है। अतः भगवान् ने कहा है-"वह (योगी) अभिज्ञा द्वारा साक्षात्करणीय जिस-जिस धर्म का साक्षात्कार अभिज्ञा द्वारा करना चाहता है, उस उस का, आयतन (=अवसर, अधिकार) होने पर, साक्षात्कार कर लेता है। (म०नि० ३/१५९)। (३) ३१. भवविशेष-माहात्म्य-उन पृथग्जनों को, जिन्होंने चाहे 'ब्रह्मलोक में उत्पन्न होऊँ'यों ब्रह्मलोक में उत्पन्न होने की कामना की हो या नहीं, किन्तु ध्यान से च्युत न हुए हों, विशेष भव को प्राप्त कराने के कारण अर्पणा समाधिभावना भवविशेष-माहात्म्य वाली होती है। अत: भगवान् ने कहा है-"प्रथम ध्यान की सीमित भावना करने के बाद कहाँ उत्पन्न होता है?" (अभि० २/५०६) अदि। (४) ३२. किन्तु उपचार समाधि द्वारा भी कामावचर (लोक में) सुगति के रूप में भवविशेष प्राप्त होता ही है। निरोधमाहात्म्य-जो आर्य (योगी) आठ समापत्तियों को उत्पन्न करने के बाद निरोधसमापत्ति में समाहित होकर सात दिनों तक चित्तरहित होकर यह सोचकर भावना करता है-'दृष्टधर्म (इसी जन्म) में ही निरोध, निर्वाण को प्राप्त कर सुखपूर्वक विहार करूँगा' उसकी अर्पणा समाधि
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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