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________________ २६० विसुद्धिमग्गो २५. एवं वचनादिवसेन मनसि करोन्तस्सा पि हि एकेकेन मुखेन धातुयो पाकटा होन्ति । ता पुनप्पुनं आवजयतो मनसिकरोतो वुत्तनयेनेव उपचारसमाधि उप्पज्जति । स्वायं चतुत्रं धातूनं ववत्थापकस्स जाग्रस्सानुभावेन उप्पजनतो चतुधातुववत्थानं त्वेव सङ्कं गच्छति। २६. इदं च पन चतुधातुववत्थानमनुयुत्तो भिक्खु सुञत्तं अवगाहति, सत्तसलं समुग्घाटेति। सो सत्तससाय समूहतत्ता वाळमिगयक्खरक्खसादिविकप्पं अनावजमानो भयभेरवसहो होति, अरतिरतिसहो, न इट्ठानिढेसु उग्घातनिग्घातं पापुणाति। महापचो च पन होति, अमतपरियोसानो वा सुगतिपरायनो वा ति॥ . . एवं महानुभावं योगिवरसहस्सकीळितं एतं। चतुधातुववत्थानं निच्चं सेवेथ मेधावी ति॥ अयं चतुधातुववत्थानस्स भावनानिद्देसो॥ २७. एत्तावता च यं समाधिस्स वित्थारं भावनानयं च दस्सेतुं "को समाधि, केनटेन समाधी" ति आदिना नयेन पञ्हाकम्मं कतं, तत्थ "कथं भावेतब्बो" ति इमस्स पदस्स सब्बप्पकारतो अत्थवण्णना समत्ता होति। दुविधो येव हयं इध अधिप्पेतो-उपचारसमाधि चेव, अप्पनासमाधि च। तत्थ दससु प्रत्यय होती है। वही अब्धातु के साथ सम्बद्ध होकर प्रतिष्ठापन का; पृथ्वीधातु के साथ सम्बद्ध होकर अब्धातु अवक्षेपण (नीचे फेंकना या गिरना) का, वायुधातु के साथ सम्बद्ध वायुधातु आगे बढ़ाने, पीछे हटाने का प्रत्यय होती है। यों, प्रत्यय-विभाग के अनुसार मनस्कार करना चाहिये। २५. यों, शब्दार्थ आदि के अनुसार मनस्कार करने वाले के लिये प्रत्येक शीर्षक के अन्तर्गत (बतलाये गये प्रकार से) धातुएँ प्रकट होती हैं। उनको बारम्बार मन में लाते हुए, मनस्कार करते हुए, उक्त प्रकार से ही उपचारसमाधि उत्पन्न होती है। क्योंकि यह (समाधि) चारों धातुओं का निश्चय करने वाले ज्ञान के प्रभाव से उत्पन्न होती है, अतः उसे भी 'चतुर्धातुव्यवस्थान' ही कहा जाता है। २६. इस चतुर्धातुव्यवस्थान में लगा हुआ भिक्षु शून्यता की अपरोक्षानुभूति (अवगाहन) करता है, सत्त्वसंज्ञा का नाश कर चुका होता है, अत: जङ्गली जानवरों, यक्ष-राक्षस आदि के विकल्प उसके मन में नहीं आते। वह भय की भयङ्करता को सहने वाला, प्रफुल्लता एवं उदासीनता को सहने वाला (समान भाव से रहने वाला) होता है, इष्ट-अनिष्ट के विषय में वह न खुशी से फूलता है, न हताश होता है। वह महान् प्रज्ञावान् होता है। अन्त में वह या तो निर्वाण प्राप्त करता है, या सुगति प्राप्त करता है। ऐसे महान् गुणों वाले सहस्रों श्रेष्ठ योगियों द्वारा क्रीडा (के समान आनन्दप्रद कर्म के रूप में स्वीकार) किये गये चतुर्धातुव्यवस्थान का मेधावी नित्य अभ्यास (भावना) करे॥ यह चतुर्धातव्यवस्थानभावना का वर्णन है। २७. यहाँ तक, जिस समाधि के विस्तार एवं भावनाविधि को प्रदर्शित करने के लिये"समाधि क्या है? किस अर्थ में समाधि है?"-आदि प्रकार से जो प्रश्न उपस्थित किये गये थे, उनमें-"कैसे भावना करनी चाहिये?"-इस कथन की सब प्रकार से व्याख्या पूर्ण हुई।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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