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________________ समाधिनिद्देसो २५३ सब्बा पि हि धातुयो रुप्पनलक्खणं अनतीतत्ता रूपानि । महन्तपातुभावादीहि कारणेहि महाभूतानि। ___महन्तपातुभावादीही ति। एता हि धातुयो-महन्तपातुभावतो, महाभूतसामञतो, महापरिहारतो, महाविकारतो, महत्ता भूतत्ता चा ति इमेहि कारणेहि महाभूतानी ति वुच्चन्ति। तत्थ महन्तपातुभावतो ति। एतानि हि अनुपादिन्नसन्ताने पि उपादिन्नसन्ताने पि महन्तानि पातुभूतानि। तेसं अनुपादिन्नसन्ताने दुवे सतसहस्सानि चत्तारि नहुतानि च। एत्तकं बहलत्तेन सङ्घातायं वसुन्धरा ति॥ आदिना नयेन महन्तपातुभावता बुद्धानुस्सतिनिद्देसे (विसु०-१६) वुत्ता व। उपादिनसन्ताने पि मच्छकच्छपदेवदानवादिसरीरवसेन महन्तानेव पातुभूतानि। वुत्तं हेतं-"सन्ति, भिक्खवे, महासमुद्दे योजनसतिका पि अत्तभावा" (अं नि० ३/३९०) ति आदि। (क) __महाभूतसामञतो ति। एतानि हि यथा मायाकारो अमणिं येव उदकं मणिं कत्वा दस्सेति, असुवणं येव लेड्डु सुवण्णं कत्वा दस्सेति । यथा च सयं नेव यक्खो न यक्खी समानो यक्खभावं पि यक्खिभावं पि दस्सेति; एवमेव सयं अनीलानेव हुत्वा नीलं उपादारूपं दस्सेन्ति, भिन्न हैं; क्योंकि पृथ्वीधातु के लक्षण, रस, प्रत्युपस्थान अन्य ही हैं, अप् धातु आदि के अन्य। इस प्रकार लक्षण आदि के अनुसार एवं कर्म से उत्पन होने आदि के अनुसार वे परस्पर भिन्न हैं; यद्यपि इनमें महाभूत, धातु, धर्म, अनित्यता आदि के बार में अभिन्नता है। सभी धातुएँ परिणामना ('रुप्पन')-लक्षण का अतिक्रमण नहीं करती, अत: रूप हैं। महान् प्रादुर्भाव आदि कारणों से महाभूत हैं। ___महान् प्रादुर्भाव आदि के कारण से ये धातुएँ महान् प्रादुर्भाव के कारण, महाविकार के कारण तथा महान् और भूत होने से, महापरिहार (रख-रखाव, देखभाल) के कारण, महाविकार के कारण तथा महान् और भूत होने से इन कारणों से महाभूत कही जाती हैं। इनमें महान् प्रादुर्भाव से-ये (धातुएँ) कर्म द्वारा अनुपार्जित ('अनुपादिन्न') एवं कर्म द्वारा उपार्जित (उपादित्र) दोनों प्रकार की सन्तानों (जीवन-सन्तति) में महत्ता के साथ प्रादुर्भूत होती हैं। कर्म द्वारा अनुपार्जित सन्तान में उनका महाप्रादुर्भाव बुद्धानुस्मृति के वर्णन प्रसङ्ग (विसु० पृ० १६) में पृथ्वी का घनत्व दो लाख, चालीस हजार (२,४०,०००) योजन कहा जाता है।"... आदि प्रकार से बतलाया ही गया है। । ये कर्म द्वारा उपार्जित सन्तान में भी मछली, कछुआ, देव, दानव आदि के शरीर के रूप में महत्ता के साथ ही प्रादुर्भूत होती है। क्योंकि कहा गया है-"भिक्षुओ! महासमुद्र में शतयोजन के प्राणी भी होते है।" (अं० नि० ३/३९०) (क) । महाभूतों के समान होने से-जैसे जादूगर जल को, जो मणि नहीं है, मणि बनाकर दिखाता है, मिट्टी के ढेले को, जो स्वर्ण नहीं है, स्वर्ण बनाकर दिखाता है; एवं जैसे यक्ष या यक्षी
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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