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________________ २५४ विसुद्धिमग्गो अपीतानि अलोहितानि अनोदातानेव हुत्वा ओदातं उपादारूपं दस्सेन्ती ति मायाकारमहाभूतसामञ्ञतो महाभूतानि । यथा च यक्खादीनि महाभूतानि यं गण्हन्ति, नेव नेसं तस्स अन्तो न बहि ठानं उपलब्भति, न च तं निस्साय न तिट्ठन्ति; एवमेव तानि पि नेव अञ्ञमञ्ञस्स अन्तो न बहि ठितानि हुत्वा उपलब्भन्ति, न च अञ्ञमञ्ञ निस्साय ने तिट्ठन्ती ति अचिन्तेय्यट्ठानताय यक्खादिमहाभूतसामञ्ञतो पि महाभूतानि । यथा च यक्खिनीसङ्घातानि मनापेहि, वण्णसण्ठानविक्खैपेहि अत्तनो भयानकभावं पटिच्छादेत्वा सत्ते वञ्चेन्ति; एवमेव एतानि पि इत्थिपुरिससरीरादीसु मनापेन छविवण्णेन मनापेन अत्तनो अङ्गपच्चङ्गसण्ठानेन मनापेन च हत्थङ्गुलिपादङ्गुलिभमुकविक्खेपेन अत्तनो कक्खळतादिभेदं सरसलक्खणं पटिच्छादेत्वा बालजनं वञ्चेन्ति, अत्तनो सभावं दद्धुं न देन्ती ति वञ्चकत्तेन यक्खिनीमहाभूतसामञ्ञतो पि महाभूतानि । (ख) महापरिहारतो ति । महन्तेहि पच्चयेहि परिहरितब्बतो। एतानि हि दिवसे दिवसे उपनेतब्बत्ता महन्तेहि घासच्छादनादीनि भूतानि पवत्तानि ति महाभूतानि । महापरिहारानि वा भूतानी तिपि महाभूतानि । (ग) महाविकारतो ति । एतानि हि अनुपादिन्नानि पि उपादिन्नानि पि महाविकारानि होन्ति । न होते हुए भी, स्वयं को यक्ष या यक्षी के रूप में प्रदर्शित करता है; वैसे ही अपने आप में (ये धातुएं ) नील न होने पर भी नील उद्भूत ('उपादा') रूपों को दिखलाती हैं, पीत, रक्त, श्वेत न होने पर भी ( पीत, रक्त एवं ) श्वेत उद्भूत रूपों को दिखलाती यों, जादूगर के महाभूतों के समान होने से महाभूत हैं। एवं जैसे कि यक्ष आदि महाभूत जिसे पकड़ते हैं, न तो उसके भीतर ही वे होते हैं न बाहर ही, और ऐसा भी नहीं है कि (वे) उसके सहारे नहीं रहते हों; वैसे ही ये (धातुएँ) न तो एक दूसरे के भीतर ही, न बाहर ही उपलब्ध होती हैं, और न ऐसा ही है कि वे एक दूसरे के सहारे नहीं रहती हों। यों, यक्ष आदि महाभूतों के समान, उनका स्थान अचिन्त्य है, इसलिये महाभूत हैं। वे एवं जैसे यक्षिणी - संज्ञक ( अतिमानवीय सत्ताएं) मनोरम वर्ण, आकृति, हाव-भाव द्वारा अपनी भयानकता को छिपाकर प्राणियों को धोखा देती हैं; वैसे ही ये भी स्त्री-पुरुष के शरीर आदि में मनोरम कान्ति, अङ्ग प्रत्यङ्ग की मनोरम आकृति तथा हाथ पैर की अंगुलियों के हावभाव से स्वयं के कठोरता आदि भेद को, अपने कार्य एवं लक्षण को छिपाकर, मूढ़ जनों को ठगती हैं, अपने स्वभाव को देखने नहीं देतीं। यों वञ्चक (ठग) होने में यक्षिणी महाभूत के समान होने से भी महाभूत हैं। (ख) महापरिहार से - महाप्रत्ययों (प्रचुर भोजन वस्त्रादि) द्वारा इनका परिहरण (सार-संभाल) करना होता है, इसलिये। क्योंकि ये प्रतिदिन प्राप्तव्य भोजन-वस्त्रादि द्वारा होती हैं, प्रवृत्त होती हैं, अतः महाभूत है। अथवा, महापरिहार वाले भूत होने से महाभूत हैं। (ग) महाविकार से – क्योंकि ये कर्म द्वारा उपार्जित एवं अनुपार्जित - दोनों ही (रूपों में)
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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