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________________ २४८ विसुद्धिमग्गो कोट्ठासो अचेतनो अब्याकलो सुझो निस्सत्तो परिपाचनाकारो तेजोधातू ति; येन जीरीयति, येन परिडव्हति, तेन असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छति, अयं इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोटासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो परिपाचनाकारो तेजोधातू ति एवं तेजोकोट्ठासेसु मनसिकारो पवत्तेतब्बो।। ____ ततो उद्धङ्गमे वाते उद्धङ्गमवसेन परिग्गहेत्वा, अधोगमे अधोगमवसेन, कुच्छिसये कुच्छिसयवसेन, कोट्ठासये कोट्ठासयवसेन, अङ्गमङ्गानुसारिम्हि अङ्गमङ्गानुसारिवसेन, अस्सासपस्सासे अस्सासपस्सासवसेन परिग्गहेत्वा उद्धङ्गमा वाता नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञो निस्सत्तो वित्थम्भनाकारो वायोधातू ति। अंधोगमा वाता नाम, कुच्छिसया वाता नाम, कोट्ठासया वाता नाम, अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो वित्थम्भनाकारो वायोधातू ति एवं वायोकोट्ठासेसु मनसिकारो पवत्तेतब्बो। ____ तस्सेवं पवत्तमनसिकारस्स धातुयो पाकटा होन्ति । ता पुनप्पुनं आवज्जतो मनसिकरोतो वुत्तनयेनेव उपचारसमाधि उप्पज्जति। (२) - २०. यस्स पन एवं भावयतो कम्मट्ठानं न इज्झति, तेन सलक्खणसोपतो भावेतब्बं । कथं? वीसतिया कोट्ठासेसु थद्धलक्खणं पथवीधातू ति ववत्थपेतब्बं । तत्थेव आबन्धन का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व परिपाचन लक्षण वाली तेजोधातु है'; जिससे जरा को प्राप्त होता है, जिससे दाह का अनुभव करता है, जिससे ख़ाया-पिया-चबायाचाटा गया (पदार्थ) सम्यक् परिणाम को प्राप्त होता है, वह इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, परिपाचन लक्षण वाली तेजोधातु है'...यों तेज (अग्नि)भागों का मनस्कार करना चाहिये। (ग) ___ तत्पश्चात् ऊर्ध्व वायु को ऊर्ध्व वायु के रूप में ग्रहण करो, अधो (वायु) को अधो (वायु) के रूप में, कुक्षि में रहने वाली को कुक्षि में रहने वाली के रूप में, कोष्ठस्थानीय को कोष्ठस्थानीय के रूप में, अङ्ग-प्रत्यङ्गों में सञ्चरण करने वाली को अङ्ग-प्रत्यङ्गों में सञ्चरण करने वाली के रूप में, आश्वास-प्रश्वास को आश्वास प्रश्वास के रूप में ग्रहण कर-'ऊर्ध्ववायु इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, विष्कम्भन लक्षण वाली वायुधातु है। अधो वायु, कुक्षिगत वायु, कोष्ठगत वायु, अङ्ग प्रत्यङ्गों में सञ्चरण करने वाली वायु इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, विष्टम्भन लक्षण वाली वायु धातु है-यों वायुभागों का मनस्कार करना चाहिये। (घ) ऐसे मनस्कार करने वाले के लिये धातुएँ प्रकट होती हैं। उन्हें बार बार मन में लाने, मनस्कार करने से उक्त प्रकार से ही उपचार समाधि उत्पन्न होती है। (२). २०. जिसे यों भावना करने पर भी कर्मस्थान में सिद्धि न प्राप्त हो सके उसे 'स्वलक्षणसंक्षेप' के अनुसार भावना करनी चाहिये। वह कैसे? बीस भागों में जो कठोरलक्षण (कठोरता) है, वह पृथ्वी धातु है-ऐसा निश्चय करना
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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