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________________ समाधिनिद्देसो २४७ ठिता' ति, न पि सिङ्घाणिका जानाति–'अहं नासापुटेसु ठिता' ति। अचमचं आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा। इति सिङ्घाणिका नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। __ लसिका अट्ठिकसन्धीनं अब्भञ्जनकिच्चं साधयमाना असीतिसतसन्धीसु ठिता। तत्थ यथा तेलब्भञ्जिते अक्खे न अक्खो जानाति–'मं तेलं अब्भञ्जित्वा ठितं' ति, न पि तेलं जानाति–'अहं अक्खं अब्भञ्जित्वा ठितं' ति; एवमेव न असीतिसतसन्धियो जानन्ति'लसिका अम्हे अब्भञ्जित्वा ठिता' ति, न पि लसिका जानाति–'अहं असीतिसतसन्धियो अब्भञ्जित्वा ठिता' ति। अचमकं आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा। इति लसिका नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। मुत्तं वत्थिस्स अब्भन्तरे ठितं। तत्थ यथा चन्दनिकाय पक्खित्ते रवणघटे न रवणघटो जानाति–'मयि चन्दनिकारसो ठितो' ति, न पि चन्दनिकारसो जानाति–'अहं रवणघटे ठितो' ति; एवमेव न वत्थि जानाति–'मयि मुत्तं ठितं' ति, न पि मुत्तं जानाति–'अहं वथिम्हि ठितं' ति। अचमनं आभोगपच्चवेक्षणरहिता एते धम्मा। इति मुत्तं नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुझो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति। एवं केसादीसु मनसिकारं पवत्तेत्वा येन सन्तप्पति, अयं इमस्मि सरीरे पाटियेक्को 'मुझमें सड़ी हुई दही है', न ही सड़ी हुई दही जानती है- 'मैं सीप में स्थित हूँ' वैसे ही न तो नासिका के छिद्र जानते हैं-'हममें पोंटा स्थित है', न ही पोंटा जानता है-'मैं नासिका-छिद्रों में स्थित हूँ'। ये धर्म परस्पर...। यों पोंटा...अप् धातु है। लसिका-लसिका (स०-लसीका) अस्थियों के जोड़ों को चिकना बनाते हए (शरीर के) एक सौ अस्सी जोड़ों में स्थित रहती है। जैसे यदि (रथ आदि की) धुरी पर तेल लगा हो, तो धुरी नहीं जानती-'तैल मुझमें लगा है', न ही तैल जानता है-'मैं धुरी में लगा हूँ'; वैसे ही न तो एक सौ अस्सी सन्धियों के जोड़ जानते हैं-'लसिका हमें तैलीय बनाते हुए स्थित है', न ही लसिका जानती है-'मैं एक सौ अस्सी सन्धियों (जोड़ों) को तैलीय बनाकर स्थित हूँ' ये धर्म परस्पर...। यों, लसिका... अप्-धातु है। ___ मूत्र-मूत्र वस्ति (मूत्रकोष) के भीतर स्थित रहता है। जैसे यदि पोखरे में रवण घट? डाला गया हो, तो रवण घट नहीं जानता-"मुझमें पोखरे का रस (छना हुआ जल) स्थित है', न ही पोखरे का रस जानता है-मैं रवण घट में हूँ', वैसे ही न तो वस्ति जानती है-'मुझ में मूत्र स्थित है', न ही मूत्र जानता है-'मैं वस्ति में स्थित हूँ।' ये धर्म परस्पर सोच-समझ से, प्रत्यवेक्षण से रहित हैं।...यों, मूत्र इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, तरल, बन्धन लक्षण वाला अप् धातु है। (ख) केश आदि का इस प्रकार मनस्कार करने के बाद, 'जिससे संतप्त होता है वह इस शरीर १. देखें पीछे टि० पृष्ठ-१०१ एवं उसका हि० अनु० । 2-18
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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