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________________ विसुद्धिमग्गो अज्झोत्थरित्वा ठितं' ति, नं पि तेलं जानाति - ' अहं आचामं अज्झोत्थरित्वा ठितं' ति; एवमेव न हत्थतलादिप्पदेसो जानाति - 'मं वसा अज्झोत्थरित्वा ठिता' ति, न पि वसा जानाति'अहं हत्थतलादिप्पदेसं अन्झोत्थरित्वा ठिता' ति । अञ्ञमञ्चं आभोगपच्चवेक्खणरहिता ऐते धम्मा । इति वसा नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति । खेळो तथारूपे खेळुप्पत्तिपच्चये सति उभोहि कपोलपस्सेहि आरोहित्वा जिव्हातले तिट्ठति । तत्थ यथा अब्बोच्छिन्नउदकनिस्सन्दे नदीतीरकूपके न कूपतलं जानाति - ' मयि उदकं सन्तिदृती' ति, न पि उदकं जानाति - ' अहं कूपतले सन्तिट्ठामी' ति; एवमेव न जिव्हातलं जानाति - ' मयि उभोहि कपोलपस्सेहि ओरोहित्वा खेळो ठितो' ति, न पि खेळो जानाति - 'अहं उभोहि कपोलपस्सेहि ओरोहित्वा जिव्हातले ठितो' ति । अञ्ञमञ्ञ आभोगपच्चवेक्खणरहिता एते धम्मा । इति खेळो नाम इमस्मि सरीरे पाटियेक्को कोट्ठासो अचेतनो अब्याकतो सुञ्ञो निस्सत्तो यूसभूतो आबन्धनाकारो आपोधातू ति । सिङ्घाणिका यदा सञ्जायति, तदा नासापुटे पूरेत्वा तिट्ठति वा पग्घरति वा । तत्थ यथा पूतिदधिभरिताय सिप्पिकाय सिप्पिका जानाति - ' मयि पूतिदधि ठितं' ति, न पि पूतिदधि जानाति——अहं सिप्पिकाय ठितं' ति; एवमेव न नासापुटा जानन्ति - ' अम्हेसु सिङ्घाणिका २४६ हममें अश्रु स्थित है', न ही अश्रु जानता है— मैं आँखों के गड्ढों में स्थित हूँ । ये धर्म परस्पर... । यों, अश्रु... अप् धातु है। वसा - वसा (=वसा पर पाये जाने वाला तैलीय पदार्थ) आग की गर्मी आदि के प्रभाव से हथेली, हाथ के पृष्ठ भाग, तलवे एवं तलवे के पृष्ठ भाग, नासिका, ललाट एवं कन्धों के उभारों पर रहने वाली चिकनाहट है। जैसे चावल के माँड़ पर यदि तैल डाल दिया जाय, तो माँड़ नहीं जानता है- 'तैल मुझ पर फैला हुआ है, न ही तैल जानता है-'मैं माँड पर फैला हुआ हूँ'; वैसे ही न तो हथेली, तलवा आदि का प्रदेश (शरीर का भाग) जानता है- 'मुझ पर वसा फैली है', न ही वसा जानती है— 'मैं हथेली आदि प्रदेश पर फैली हूँ।' ये धर्म परस्पर सोच-समझ से, प्रत्यवेक्षण से रहित हैं। यों, वसा इस शरीर का एक विशेष भाग है, जो अचेतन, अव्याकृत, शून्य, निःसत्त्व, तरल, बन्धन लक्षण वाली अप्-धातु है। थूक - थूक (सं० - क्ष्वेड) की उत्पत्ति कारण उपस्थित होने पर थूक दोनों कपोलों से उतरकर जिह्वा - तल (सतह) पर रहता है। जैसे यदि नदी के किनारे बने हुए कूप में जल का निरंतर प्रवाह होता हो, तो कूप का तल नहीं जानता - ' - 'मुझमें पानी रहता है, न ही पानी जानता है - 'मैं कूप तल में रहता हूँ'; वैसे ही न तो जिह्वा की सतह जानती है- 'दोनों कपोलों से उतरा हुआ थूक मुझ पर स्थित है', न ही थूक जानता है—'मैं दोनों कपोलों से उतरकर जिह्वा की सतह पर स्थित हूँ।' ये धर्म परस्पर...। यों थूक... अप् धातु है । पोंटा - नाक से बहने वाला मलिन द्रव (सिंघाणक) जब उत्पन्न होता है, तब नासिका छिद्रों में भरे रहता है या बहता है। जैसे यदि सीप में सड़ी हुई दही भरी हो, तो सीप नहीं जानती - १. खेळुप्पत्तिपच्चये । अम्बिलग्गमधुरग्गादिके।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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