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________________ २५ अन्तरङ्गकथा मार कर चौराहे पर खण्ड खण्ड कर रख दे और उसे उन खण्डों को देखकर 'यह बैल है' ऐसी संज्ञा नहीं उत्पन्न होती, उसी प्रकार भिक्षु इसी काय को धातु द्वारा व्यवस्थित करता है कि- इस काय में पृथिवी धातु है, आपो धातु है, तेजो धातु है, वायु धातु है। इस प्रकार के व्यवस्थान से काय में 'यह सत्त्व है, यह पुद्गल है, यह आत्मा है' ऐसी संज्ञा नष्ट होकर धातुसंज्ञा ही उत्पन्न होती है । " साधक इस संज्ञा को उत्पन्न कर अपने आध्यात्मिक और बाह्य रूप का चिन्तन करता है। वह आचार्य के पास ही केश- लोम-नख-दन्त आदि कर्मस्थान को ग्रहण कर उनमें भी धातुचतुष्टय का व्यवस्थान करता है; फिर पृथिवी आदि महाभूतों के लक्षण, समुत्थान, नानात्व, एकत्व, प्रादुर्भाव, संज्ञा, परिहार और विकास का चिन्तन करता है। उनमें अनात्म संज्ञा, दुःख संज्ञा, और अनित्य संज्ञा उत्पन्न करता है और उपचार समाधि प्राप्त करता है । अर्पणा प्राप्त नहीं होती। चतुर्धातुव्यवस्थान में अनुयुक्त साधक शून्यता में अवगाह करता है, सत्त्व-संज्ञा का समुद्धात करता है और महाप्रज्ञा को प्राप्त करता है । १२. ऋद्धिविधनिर्देश भगवान् ने पाँच लौकिक अभिज्ञाएँ कही हैं - (१) ऋद्धिविध, (२) दिव्य श्रोत्र, (३) चेत:पर्यायज्ञान, (४) पूर्वनिवासानुस्मृति ज्ञान, (५) च्युत्युत्पाद ज्ञान। १. ऋद्धिविध - इसको प्राप्त करने की इच्छा वाले प्रारम्भिक साधक को अवदात कसिण तक आठों कसिणों में आठ आठ समापत्तियों को उत्पन्न कर कसिण के अनुलोम से, कसिण के प्रतिलोम से, कसिण के अनुलोम और प्रतिलोम से; ध्यान के अनुलोम से, ध्यान के प्रतिलोम से, ध्यान के अनुलोम और प्रतिलोम से; ध्यान को लाँघने से, कसिण को लाँघने से, ध्यान और कसिण को लाँघने से; अङ्ग के व्यवस्थापन से, आलम्बन के व्यवस्थापन से-इन चौदह आकारों से चित्त का भली प्रकार दमन करना चाहिये । चित्त का दमन हो जाने पर जब चतुर्थ ध्यान प्राप्त करने के पश्चात् साधक एकाग्र, शुद्ध, निर्मल, क्लेशों से रहित, मृदु, मनोरम, और निश्चल चित्तवाला हो जाता है, तब वह ऋद्धिविध को प्राप्त करता है और अनेक प्रकार की ऋद्धियों का अनुभव करने लगता है। ऋद्धियाँ दस हैं- (१) अधिष्ठान ऋद्धि (२) विकुर्वण ऋद्धि (३) मनोमय ऋद्धि (४) ज्ञानविस्फार ऋद्धि (५) आर्य ऋद्धि (६) कर्मविपाकज ऋद्धि (७) पुण्यवान् की ऋद्धि (८) विद्यामय ऋद्धि तथा (९) उन उन स्थानों पर सम्यक् प्रयोग के कारण सिद्ध होने के अर्थ में ऋद्धि । इन ऋद्धियों को प्राप्त साधक एक से अनेक होता है, प्रकट और अदृश्य होता है, आरपार विना स्पर्श किये जाता है, पृथ्वी में जल की भाँति गोता लगाता है, जल पर पैदल चलता है, आकाश में पद्मासन लगा कर बैठता है, चन्द्र सूर्य को हाथ से स्पर्श करता है, दूर को पास कर देता है, मनोमय शरीर का निर्माण करता है। १३. अभिज्ञानिर्देश २. शेष अभिज्ञाओं में दिव्य श्रोत्रज्ञान एक स्थान पर बैठकर मन में विचारे हुए स्थानों के शब्दों को सुनने को कहते हैं । चतुर्थ ध्यान से उठकर जब साधक दिव्य श्रोत्र ज्ञान की प्राप्ति के लिये अपने चित्त को लगाता है, तब वह अपने अलौकिक शुद्ध दिव्य श्रोत्र से दोनों प्रकार के - मनुष्यों के भी और देवताओं के भी शब्द सुनने लगता है। ३. अपने चित्त से दूसरे व्यक्ति के चित्त को जानने के ज्ञान को चेत: पर्यायज्ञान कहते हैं। इसे प्राप्त करने वाले साधक को दिव्यचक्षुवाला भी होना चाहिये। उस साधक को आलोक की वृद्धि करके
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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