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________________ २६ विसुद्धिमग्गो दिव्य चक्षु से दूसरे के हृदय (कलेजे) के सहारे विद्यमान रुधिर के रंग को देखकर चित्त को ढूँढना चाहिये। जब सौमनस्यचित्त होता है, तब रुधिर पके हुए बरगद के समान लाल होता है। जब दौर्मनस्यचित्त होता है, तब पके हुए जामुन के समान काला होता है। जब उपेक्षाचित्त होता है, तब परिशुद्ध तिल के तैल के समान स्वच्छ होता है। इसलिये साधक.को हृदय के सहारे रहने वाले रुधिर में रंग को देखकर चित्त को ढूँढ़ते हुए चेतःपर्याय ज्ञान को शक्तिसम्पन्न बनाना चाहिये। इस प्रकार शक्तिसम्पन्न होने पर वह क्रमशः सभी कामावचर, रूपावचर और अरूपावचर चित्तों को अपने चित्त से जान लेता है, तब उसे हृदय के रुधिर के परीक्षण में जाने की आवश्यकता नहीं होती। वह जब अपने चित्त से दूसरे के चित्त की बातों को जानना चाहता है, तब वह दूसरे सत्त्वों के, दूसरे लोगों के चित्त को अपने चित्त से जान लेता है-रागसहित चित्त को रागसहित जान लेता है, वैराग्यसहित चित्त को वैराग्यसहित जान लेता है। इसी प्रकार वह द्वेष, मोह आदि से युक्त या रहित चित्तों को भी जान लेता है। आचार्य ने इसमें दर्पण की उपमा दी है। जैसे कोई स्त्री या पुरुष अपने को अलंकृत कर दर्पण में देखते हुए स्पष्ट रूप से देखे, उसी प्रकार वह दूसरे के चित्त को अपने चित्त से जान लेता है। ४. पूर्वजन्मों की बातों के ज्ञान को पूर्वनिवासानुस्मृति ज्ञान कहते हैं। इसे प्राप्त करने के लिये चतुर्थ ध्यान से उठ सब से अन्तिम बैठने का स्मरण करना चाहिये। तत्पश्चात् आसन बिछाने से लेकर प्रातःकाल तक के प्रत्येक कार्य का स्मरण करना चाहिये। इस प्रकार प्रतिलोम विधि से सम्पूर्ण रात्रि और दिन के किये हुए कार्यों का स्मरण करना चाहिये। यदि इनमें से कुछ प्रकट न हों तो पुनः चतुर्थध्यान को प्राप्त कर उससे उठ इन्हें स्मरण करना चाहिये। ऐसे क्रमशः दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें, दसवें, पन्द्रहवें, तीसवें दिन के कार्यों का स्मरण करना चाहिये। यही नहीं, महीने से लेकर वर्ष भर के किये हुए कार्यों का स्मरण करना चाहिये। इसी प्रकार दस वर्ष, बीस वर्ष तक के कार्यों का स्मरण करना चाहिये। तदुपर्यन्त इस जन्म में जन्म ग्रहण से लेकर पूर्व जन्म की मृत्यु के समय तक का स्मरण करना चाहिये तथा उस जन्म के अपने रूप को देखना चाहिये। जब साधक इस ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, तब वह अनेक पूर्वजन्मों की बातों को स्मरण करता है। जैसे, एक जन्म से लेकर हजार, लाख, अनेक संवर्त कल्पों, अनेक विवर्त कल्पों को जानता है-"मैं वहाँ इस नाम वाला, इस गोत्र वाला, इस रंग वाला, इस आहार को खाने वाला, इतनी आयु वाला था, मैंने इस प्रकार के सुख दुःख का अनुभव किया, अतः मैं वहाँ से मरकर यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ।" इस तरह आकार प्रकार के साथ वह अनेक पूर्व जन्मों को स्मरण करता है। ५. दिव्य चक्षु के ज्ञान को ही च्युत्युत्पाद ज्ञान कहते हैं। जो साधक इसे प्राप्त करना चाहता है, उसे चतुर्थ ध्यान से उठकर प्राणियों की च्युति एवं उत्पत्ति को जानने के लिये विचार करने पर दिव्यचक्षु उत्पन्न हो जाता है। इसके लिये किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं। साधक आलोक फैलाकर नरक एवं स्वर्ग के सभी जीवों के कर्मों तथा उनके विपाकों को जान सकता है। उसे यथाकर्मोपग ज्ञान और अनागतांश ज्ञान सिद्ध हो जाते हैं। वह च्युत्युत्पादज्ञानी कहा जाता है। ऋद्धिविध, दिव्यश्रोत्र, चेतःपर्याय ज्ञान, पूर्वनिवासानुस्मृति ज्ञान और च्युत्युत्पाद ज्ञान-ये पाँचों अभिज्ञाएँ लौकिक हैं, किन्तु जब कोई अर्हत् इन्हें प्राप्त करता है, तब ये ही लोकोत्तर कही जाती हैं और उक्त पाँचों के साथ आश्रव-क्षयज्ञान और सम्मिलित हो जाता है। इस प्रकार लौकिक अभिज्ञाएँ पाँच और लोकोत्तर अभिज्ञाएँ छह हैं। इस तरह समाधिभावना का विवरण समाप्त हुआ। -47 स्वामी द्वरिकादासशास्त्री
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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