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________________ विसुद्धिमग्गो करने के लिये विज्ञान के अभाव की संज्ञा प्राप्त करता है। " अभाव भी अनन्त है; कुछ भी नहीं है, सब कुछ शान्त है" इस प्रकार की भावना करने पर साधक इस तृतीय अरूप ध्यान को प्राप्त होता है। (३) नैवसंज्ञानासंज्ञायतनु – अभाव की संज्ञा भी बड़ी स्थूल है । अभाव की संज्ञा का भी अभाव जिसमें है, ऐसा अति शान्त, सूक्ष्म यह चौथा आयतन है। इस ध्यान में संज्ञा अतिसूक्ष्म रूप में रहती है, इसलिये उसे असंज्ञा नहीं कह सकते, और स्थूल रूप में न होने के कारण उसे संज्ञा भी नहीं कह पाते। पालि में एक उपमा देकर इसे समझाया है। गुरु और शिष्य प्रवास में थे। मार्ग में थोड़ा जल था। शिष्य ने कहा—“ आचार्य! मार्ग में जल है; इसलिये जूता निकाल लीजिये। गुरु ने कहा- "अच्छा तो स्नान कर लूँ, पात्र दो ।" शिष्य ने कहा-' - "गुरुदेव ! स्नान करने योग्य जल नहीं है।" जिस प्रकार उपानह को भिगाने के लिये पर्याप्त जल है, किन्तु स्नान के लिये पर्याप्त नहीं; इसी प्रकार इस २४ में संज्ञा का अतिसूक्ष्म अंश विद्यमान है, किन्तु संज्ञा का कार्य हो, इतना स्थूल भी वह नहीं है, इसीलिये इस आयतन को नैवसंज्ञानासंज्ञायतन कहा है । यह आयतन प्राप्त करने पर ही साधक निरोधसमापत्ति को प्राप्त कर सकता है, जिसमें निश्चित काल (= सात दिन ) तक साधक की मनोवृत्तियों का आत्यन्तिक निरोध होता है । (४) इन चार अरूप ध्यानों में केवल दो ही ध्यानाङ्ग रहते हैं— उपेक्षा और चित्तैकाग्रता । ये चार ध्यान अनुक्रम से शान्ततर, प्रणीततर और सूक्ष्मतर होते हैं। ११. समाधिनिर्देश आहार में प्रतिकूलसंज्ञा आरूप्य के अनन्तर आहार में प्रतिकूलसंज्ञा नामक कर्मस्थान निर्दिष्ट है। आहरण करने के कारण 'आहार' कहते हैं। यह चतुर्विध है - १. कवलीकाराहार (= खाद्य पदार्थ), २. स्पर्शाहार, ३ . मनःसञ्चेतनाहार और ४. विज्ञानाहार। इनमें से कवलीकार आहार ओजयुक्त रूप का आहरण करता है। स्पर्शाहार सुख, दुःख, उपेक्षा इन तीन वेदनाओं का आहरण करता है । मनः सञ्चेतनाहार काम, रूप, रूप भवों में प्रतिसन्धि का आहरण करता है। विज्ञानाहार प्रतिसन्धि के क्षण में नाम-रूप का आहरण करता है। ये चारों आहार भयस्थान हैं, किन्तु यहाँ केवल कवलीकार आहार ही अभिप्रेत है। उस आहार में जो प्रतिकूलसंज्ञा उत्पन्न होती है, वही यह कर्मस्थान है। इस कर्मस्थान की भावना करने का इच्छुक साधक असित, पीत, खायित, सायित प्रभेद का जो कवलीकार आहार है, उसके गमन, पर्येषण, परिभोग, आशय, निधान, अपरिपक्वता, परिपक्वता, फल, निष्यन्द और सम्रक्षण रूप से जो अशुचिभाव का विचार करता है, उस विचार से उसे आहार में प्रतिकूलसंज्ञा उत्पन्न होती है, और कवलीकार आहार का होता है। वह उस प्रतिकूल भावना को बढ़ाता है। उसके नीवरणों का विष्कम्भन होता है और चित्त उपचार- समाधि को प्राप्त होता है; अर्पणा नहीं होती । इस संज्ञा से साधक की रसतृष्णा नष्ट होती है। वह केवल दुःखनिस्सरण के लिये ही आहार का सेवन करता है; पञ्च कामभोगों में राग उत्पन्न नहीं होता और कायगता स्मृति उत्पन्न होती है। चतुर्धातु-व्यवस्थान चालीस कर्मस्थानों में यह अन्तिम कर्मस्थान है। स्वभाव निरूपण द्वारा विनिश्चय को 'व्यवस्थान' कहते हैं। महासतिपट्ठान, महाहत्थिपदोपम, राहुलोवाद आदि सूत्रों में इसका विशेष वर्णन आता है। महासतिपट्ठानसुत्त में कहा है- “भिक्षुओ ! जिस प्रकार कोई दक्ष गोघातक बैल को
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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