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________________ अन्तरङ्गकथा तदनन्तर दुःखी लोगों की सम्पन्न-अवस्था देखकर मुदिता भावना द्वारा प्रमुदित होना चाहिये और तत्पश्चात् कर्त्तव्य के अभाव में उपेक्षा भावना द्वारा उदासीन वृत्ति का अवलम्ब करना चाहिये। इसी क्रम से इन भावनाओं की प्रवृत्ति होती है, अन्यथा नहीं। - यद्यपि चारों ब्रह्मविहार अप्रमाण हैं, तथापि पहले तीन केवल प्रथम तीन ध्यानों का उत्पाद करते हैं और चौथा ब्रह्मविहार अन्तिम ध्यान का ही उत्पाद करता है। इसका कारण यह है कि मैत्री, करुणा और मुदिता दौर्मनस्यसम्भूत व्यापाद, विहिंसा और अरति के प्रतिपक्ष होने के कारण सौमनस्यरहित नहीं होती। सौमनस्यसहित होने के कारण इनमें सौमनस्यविरहित उपेक्षासहगत चतुर्थ ध्यान का उत्पाद नहीं हो सकता। उपेक्षावेदना से संयुक्त होने के कारण केवल उपेक्षाब्रह्मविहार में अन्तिम ध्यान का लाभ होता है। १०. आरूप्यनिर्देश चार ब्रह्मविहारों के पश्चात् विसुद्धिमग्ग में चार अरूप-कर्मस्थान उद्दिष्ट हैं। अरूपायतन चार हैं-१. आकाशानन्त्यायतन, २. विज्ञानानन्त्यायतन, ३. आकिञ्चन्यायतन और ४. नैवसंज्ञानासंज्ञायतन। चार रूपध्यानों की प्राप्ति होने पर ही अरूप-ध्यान की प्राप्ति होती है, करज (कर्मज) रूपकाय में और इन्द्रिय तथा उनके विषय में दोष देखकर रूप का समतिक्रम करने के हेतु से यह ध्यान किया जाता है। चौथे ध्यान में कसिण-रूप रहता है। उस कसिण-रूप का समतिक्रम इस ध्यान में होता है। जिस प्रकार कोई पुरुष सर्पको देखकर भयभीत हो भाग जाता है, और सर्प के समान दिखायी देनेवाले रज्जु आदि का भी निवारण चाहता है, उसी प्रकार साधक करजरूप से भयभीत हो चतुर्थ ध्यान प्राप्त करता है, जहाँ करजरूप से समतिक्रम होता है; लेकिन उसके प्रतिभागरूप कसिण के रूप में स्थित होता है। उस कसिण-रूप का निवारण करने की इच्छा से साधक अरूपध्यान को प्राप्त करता है, जहाँ सभी प्रकार के रूप का समतिक्रम सम्भव है। आकाशानन्त्यायतन में तीन संज्ञाओं का निवारण होता है-१. रूपसंज्ञा अर्थात् जडसृष्टि सम्बन्धी विचार; २. प्रतिघसंज्ञा अर्थात् इन्द्रिय और विषयों का प्रत्याघातमूलक विचार; ३. नानात्वसंज्ञा अर्थात् अनेकविध रूप, शब्दादि आलम्बनों का विचार । इन तीनों संज्ञाओं का अनुक्रम, अस्तङ्गम, और अमनसिकार होने पर 'आकाश अनन्त है' ऐसी संज्ञा उत्पन्न होती है। इसे आकाशानन्त्यायतन-ध्यान कहते हैं। परिच्छिन्न आकाश कसिण को छोड़कर अन्य किसी कसिण को आलम्बन कर चतुर्थ-ध्यान को प्राप्त करने पर ही यह भावना की जाती है। कसिण पर चतुर्थ ध्यान साध्य करने के पूर्व ही उस कसिण की मर्यादा अनन्त की जानी चाहिये। कसिण प्रथम छोटे आकार का होता है, जिसे अनुक्रम से बढ़ाकर समस्त विश्वाकार किया जाता है, उस विश्वाकार आकृति पर चतुर्थध्यान साध्य करने के पश्चात् साधक अपने ध्यानबल से उस आकृति को दूर करके विश्व में केवल एक आकाश ही भरा हुआ है' ऐसा देखता है। चतुर्थ ध्यान तक रूपात्मक आलम्बन था, अब अरूपात्मक आलम्बन है; इसलिये 'आकाश अनन्त है' ऐसी संज्ञा होने से इसे आकाशानन्त्यायतन कहा है। (१) विज्ञानानन्त्यायतन-इस ध्यान में साधक आकाशसंज्ञा का समतिक्रम करता है। आकाश की अनन्त मर्यादा ही विज्ञान की मर्यादा है-ऐसी संज्ञा उत्पन्न करने पर वह विज्ञान का आनन्त्य जिसका आलम्बन है, ऐसे ध्यान को प्राप्त करता है। (२) आकिञ्चन्यायतन-इस ध्यान में साधक विज्ञान में भी दोष देखता है और उसका समतिक्रम
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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