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________________ २०४ विसुद्धिमग्गो १८. अनन्तं विज्ञाणं ति। तं येव 'अनन्तो आकासो' ति एवं फरित्वा पवत्तविज्ञाणं। "अनन्तं विज्ञाणं" ति एवं मनसिकरोन्तो ति वुत्तं होति। मनसिकारवसेन वा अनन्तं । सो हि तं आकासारम्मणं विज्ञाणं अनवसेसतो मनसिकरोन्तो "अनन्तं" ति मनसिकरोति। यं पन विभने वुत्तं-"अनन्तं विज्ञाणं ति न्यं येव आकासं विज्ञाणेन फुट मनसिकरोति, अनन्तं फरति, तेन वुच्चति अनन्तं विज्ञाणं" (अभि० २/३१५) ति। तत्थ 'विाणेना' ति उपयोगत्थे करणवचनं वेदितब्बं । एवं हि अट्ठकथाचरिया तस्स अत्थं वण्णयन्ति। अनन्तं फरति, तं येव आकासं फुटं विज्ञाणं मनसिकरोती ति वुत्तं होति। विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज विहरती ति। एत्थ पन नास्स अन्तो ति अनन्तं, अनन्तमेव आनञ्चं, विज्ञाणं आनञ्चं विज्ञाणानञ्चं ति अवत्वा विाणञ्चं ति वुत्तं । अयं हेत्थ रूळ्हिसद्दो। तं विज्ञाणञ्चं अधिट्टानटेन आयतनमस्स ससम्पयुत्तधम्मस्स झानस्स देवानं देवायतनमिवा ति विज्ञाणञ्चायतनं। सेसं पुरिमसदिसमेवा ति॥ अयं विज्ञाणञ्चायतनकम्मट्ठाने वित्थारकथा॥ ३. ततियारुप्प( आकिञ्चायतन )कथा १९. आकिञ्चायतनं भावेतुकामेन पनं पञ्चहाकारेहि विज्ञाणञ्चायतनसमापत्तियं चिण्णवसीभावेन "आसन्नआकासानञ्चायतनपच्चत्थिका अयं समापत्ति, नो च आकिञ्चञा १८. अनन्तं विज्ञाणं-जो विज्ञान आकाश को आलम्बन बनाकर अनन्त आकाश' इस रूप में प्रवृत्त हुआ था, उसी विज्ञान को "अनन्त विज्ञान"-यों मनस्कार करने के कारण कहा जाता है। या मनस्कार के अनुसार अनन्त है; क्योंकि वह आकाश को आलम्बन बनाने वाले उस विज्ञान का निरवशेष मनस्कार करते हुए (वस्तुतः) 'अनन्त'-यह मनस्कार करता है। . किन्तु विभङ्ग में जो यह कहा गया है-"अनन्त विज्ञान-उसी आकाश का, जो विज्ञान का आलम्बन हैं, जो विज्ञान का मनस्कार करता है, अनन्त को आलम्बन बनाता है, इसलिये अनन्त विज्ञान कहा जाता है" (अभि० २/३१५)-इस प्रसङ्ग में "विज्ञान द्वारा"-इसमें उपयोग के अर्थ में करण कारक जानना चाहिये। अट्ठकथाचार्य उसका यही अर्थ बतलाते हैं। अनन्त को आलम्बन बनाता है, उसी (पूर्व आलम्बनभूत) आकाश को व्याप्त करने वाले विज्ञान का मनस्कार करता है-यह अर्थ है। विज्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज विहरति-यहाँ इसका अन्त नहीं है, अतः अनन्त है। अनन्त ही आनन्त्य है। विज्ञान+आनन्त्य विज्ञानानन्त्य। (किन्तु) यह न कहकर 'विज्ञानन्त्य' कहा गया है। यहाँ यह रूढ़ शब्द है। विज्ञानानन्त्य अधिष्ठान के अर्थ में इसके सम्प्रयुक्त धर्म-ध्यान का आयतन है, जैसे देवों का देवायतन; अत: विज्ञानानन्त्यायतन है। शेष (की व्याख्या) पूर्व सदृश ही (जाननी चाहिये)॥ यह विज्ञानानन्त्यायतन कर्मस्थान की व्याख्या है। ३. तृतीय आरूप्य (आकिञ्चन्यायतन) १९. आकिञ्चन्यायतन की भावना के अभिलाषी को पाँच प्रकार से विज्ञानानन्त्यायतनसमापत्ति में कुशलता प्राप्त कर "आकाशानन्त्यायतन इस समापत्ति का समीपवर्ती वैरी है, एवं (यह)
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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