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________________ आरुप्पनिद्देसो २०३ सन्तिट्ठति, उपचारेन चित्तं समाधियति । सो तं निमित्तं पुनप्पुनं आसेवति, भावेति, बहुलीकरोति । तस्सेवं करोतो आकासे आकासानञ्चायतनं विय आकासफुटे विञ्ञाणे विञ्ञाणञ्चायतनचित्तं अप्पेति। अप्पनानयो पनेत्थ वुत्तनयेनेव वेदितब्बो । एत्तावता चेस "सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म अनन्तं विञ्ञाणं ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरती " ( अभि० २ / ३९५ ) ति वच्चति । १७. तत्थ सब्बसो ति इदं वुत्तनयमेव । आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्मा ति एत्थ पन पुब्बे वुत्तनयेनेव झानं पि आकासानञ्चायतनं, आरम्मणं पि । आरम्मणं पि हि पुरिमनयेनेव आकासानञ्चं च तं पठमस्स आरुप्पज्झानस्स आरम्मणत्ता देवानं देवायतनं विय अधिट्ठानन आयतनं चा ति आकासानञ्चायतनं । तथा आकासानञ्चं च तं तस्स झानस्स सञ्जातिहेतुत्ता "कम्बोजा अस्सानं आयतनं" ति आदीनि विय सञ्जातिदेसट्टेन आयतनं चाति पि आकासानञ्चायतनं। एवमेतं, झानं च आरम्मणं चा ति उभयं पि अप्पवत्तिकरणेन च अमनसिकरणेन च समतिक्कमित्वा व यस्मा इदं विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहातब्बं, तस्मा उभयं पेतं एकज्झं कत्वा " आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्मा" ति इदं वुत्तं ति वेदितब्बं । मनस्कार करना चाहिये, प्रत्यवेक्षण करना चाहिये, तर्क-वितर्क करना चाहिये । किन्तु " अनन्त, अनन्त' – यों मनस्कार नहीं करना चाहिये । १६. उस निमित्त में बार-बार चित्त को लगाने वाले उस योगी के नीवरण दब जाते हैं, स्मृति स्थिर होती है, उपचार द्वारा चित्त समाधिस्थ होता है। वह उस निमित्त का पुनः पुनः अभ्यास, भावना, बार बार वृद्धि करता है। ऐसा करने वाला, आकाश (आलम्बन) में आकाशानन्त्यायतन के समान, आकाश को विषय बनाने वाले विज्ञान में विज्ञानानन्त्यायतन को प्राप्त करता है। अर्पणा की विधि यहाँ पूर्वकथित के अनुसार ही जाननी चाहिये । इस प्रसङ्ग में यह कहा गया है - " सर्वथा आकाशानन्त्यायतन का अतिक्रमण कर अनन्त विज्ञान-विज्ञानानन्त्यायतन को प्राप्त कर विहरता है।" (अभि० २ / ३९५) । १७. इनमें सब्बसो – इसे पूर्वोक्त के अनुसार जानना चाहिये। आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म – यहाँ, पूर्वोक्त प्रकार से ही, ध्यान भी आकाशानन्त्यायतन है और ( ध्यान का ) आलम्बन भी। क्योंकि आलम्बन भी पूर्वोक्त प्रकार से ही आकाशानन्त्य है । एवं क्योंकि यह प्रथम आरूप्य ध्यान का आलम्बन होने से अधिष्ठान के अर्थ में आयतन है, जैसे देवों का देवायतन, अतः आकाशानन्त्यायतन' (कहा जाता) है, वैसे ही यह आकाशानन्त्य है और क्योंकि इसके कारण वह ध्यान उत्पन्न होता है, अतः उत्पत्ति के देश (क्षेत्र) के अर्थ में आयतन है, जैसे "कम्बोज (एक देशविशेष) अश्वों का आयतन है।" इसलिये भी आकाशानन्त्यायतन ( कहलाता) है। तात्पर्य यह है- क्योंकि ध्यान एवं (उसकें) आलम्बन - दोनों को ही प्रवर्तित एवं मनस्कार न करते हुए उनका अतिक्रमण कर, इस विज्ञानानन्त्यायतन को प्राप्त कर साधना करनी चाहिये। अतः उन दोनों को ही एक मानकर " आकाशानन्त्यायतन का समतिक्रमण कर" ऐसा कहा गया जानना चाहिये । १. उसका " अनन्तविज्ञान, अनन्तविज्ञान" इस प्रकार या "विज्ञान, विज्ञान"- - इस प्रकार मनस्कार करना चाहिये । — परमार्थमञ्जूषा (विसुद्धिमग्गट्ठकथा) ३४।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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