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________________ विसुद्धिमग्गो आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरती ति । एत्थ पन नास्स अन्तो ति अनन्तं, आकासं अनन्तं आकासानन्तं, आकासानन्तमेव आकासानञ्चं । तं आकासानञ्चं अधिट्ठानवेन आयतनमस्स ससम्पयुत्त धम्मस्स झानस्स देवानं देवायतनमिवा ति आकासानञ्चायतनं । उपसम्पज्ज विहरती ति आकासानञ्चायतनं पत्वा निप्फादेत्वा तदनुरूपेन इरियापथविहारेन विहरति ॥ अयं आकासनिञ्चायतनकम्मट्ठाने वित्थारकथा ॥ २०२ २. दुतियारुप्प (विञ्ञाणञ्चायतन ) कथा १५. विञाणञ्चायतनं भावेतुकामेन पन पञ्चहाकारेहि आकासानञ्चायतनसमापत्तियं चिण्णवसीभावेन' " आसन्नरूपावचरज्झानपच्चत्थिका अयं समापत्ति, नो च विञ्ञाणञ्चायतनमिव सन्ता" ति आकासानञ्चायतने आदीनवं दिस्वा तत्थ निकन्तिं परियादाय विञ्ञाणञ्चायतनं सन्ततो मनसिकरित्वा तं आकासं फरित्वा पवत्तविञ्ञाणं "विञ्ञाणं विञ्ञाणं" ति पुनप्नं आवज्जितब्बं, मनसिकातब्बं, पच्चवेक्खितब्बं, तक्काहतं वितक्काहतं कातब्बं। “अनंन्तं अनन्तं" ति पन नु मनसिकातब्बं । १६. तस्सेवं तस्मि निमित्ते पुनप्पुनं चित्तं चारेन्तस्स नीवरणानि विक्खम्भन्ति, सति १४. अनन्तो आकासो - इसका ओर-छोर ज्ञात नहीं होता है, अतः अनन्त है। जिसमें सेकसिण मिटा दिया गया हो, उस आकाश को (यहाँ) अकाश कहा गया हैं। तथा अनन्तता को यहाँ 'मनस्कार की अनन्तता' ही समझना चाहिये । इसीलिये विभङ्ग में कहा गया है - " उस आकाश में चित्त को रखता है, व्यवस्थित करता है, अनन्तरूप से ( ध्यान का) विस्तार करता है, इसलिये 'अनन्त आकाश' कहा जाता है।" (अभि० २ / ३१५) । आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति — इसका अन्त नहीं है, अतः अनन्त है। आकाश है और अनन्त है, अतः आकाशानन्त है। आकाशानन्त ही आकाशानत्य है । वह आकाशानन्त्य अपने सम्प्रयुक्त धर्मध्यान का अधिष्ठान के अर्थ में आयतन (आधार) है, जैसे देवों का देवायतन होता है, अतः आकाशानन्त्यायतन है । उपसम्पज्ज विहरति - आकाशानन्त्यायतन को प्राप्त कर, उसे उत्पन्न कर, तदनुरूप ईर्थ्यापथ से विहार करता है ॥ यह आकाशानन्त्यायतन कर्मस्थान की व्याख्या है ॥ २. द्वितीय आरूप्य (विज्ञानानन्त्यायतन ) १५. विज्ञानानन्त्यायतन की भावना के अभिलाषी को, जिसने पाँच प्रकार से आकाशानन्त्यायतनसमापत्ति में कुशलता प्राप्त कर ली हो, "इस समापत्ति का समीपवर्ती वैरी रूपावचर ध्यान है, एवं यह विज्ञानानानन्त्यायतन के समान शान्त नहीं है"-यों आकाशानन्त्यायतन में दोष देखकर उसके प्रति आसक्ति छोड़ देना चाहिये तथा विज्ञानानन्त्यायतन का 'शान्त' के रूप में मनस्कार कर, आकाश को व्याप्त कर प्रवृत्त विज्ञान के प्रति "विज्ञान, विज्ञान" यों बारम्बार ध्यान देना चाहिये, १. चिण्णो चरितो पगुणीकतो आवज्जनादिलक्खणो वसीभावो एतेना ति चिण्णवसी भावो, तेन चिण्णवसीभावेन ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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