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________________ आरुप्पनिद्देसो २०५ यतनमिव सन्ता'' ति विज्ञाणञ्चायतने आदीनवं दिस्वा तत्थ निकन्तिं परियादाय आकिञ्चञायतनं सन्ततो मनसिकरित्वा तस्सेव विाणञ्चायतनारम्मणभूतस्स आकासानञ्चायतनविज्ञाणस्स अभावो सुझता विवित्ताकारो मनसिकातब्बो। कथं? तं विज्ञाणं अमनसिकरित्वा "नत्थि नत्थी" ति वा, "सुजं सुबं" ति वा, "विवित्तं विवित्तं" ति वा पुनप्पुनं आवज्जितब्बं, मनसिकातब्बं पच्चवेक्खितब्, तक्काहतं वितक्काहतं कातब्। २०. तस्सेवं तस्मि निमित्ते चित्तं चारेन्तस्स नीवरणानि विक्खम्भन्ति, सति सन्तिट्ठति, उपचारेन चित्तं समाधियति । सो तं निमित्तं पुनप्पुनं आसेवति भावेति, बहलीकरोति। तस्सेवं करोतो आकासे फुटे महग्गतविज्ञाणे विज्ञाणञ्चायतनं विय तस्सेव आकासं फरित्वा पवत्तस्स महग्गतविज्ञाणस्स सुचविवित्तनत्थिभावे आकिञ्चञायतनचित्तं अप्पेति। एत्था पि च अप्पनानयो वुत्तनयेनेव वेदितब्बो। २१. अयं पन विसेसो-तस्मि हि अप्पनाचित्ते उप्पन्ने सो भिक्खु यथा नाम पुरिमो मण्डलमालादीसु केनचिदेव करणीयेन सन्निपतितं भिक्खुसङ्घ दिस्वा कत्थचि गन्त्वा सन्निपातकिच्चावसाने व उट्ठाय पक्कन्तेसु भिक्खूसु आगन्त्वा द्वारे ठत्वा पुन तं ठानं ओलोकेन्तो सुझमेव पस्सति, विवित्तमेव पस्सति, नास्स एवं होति-"एत्तका नाम भिक्खू कालङ्कता वा दिसापक्कन्ता वा" ति, अथ खो सुचमिदं विवित्तं ति नस्थिभावमेव पस्सति; एवमेव पुब्बे आकासे पवत्तितविञाणं विज्ञाणञ्चायतनज्झानचक्खुना पस्सन्तो विहरित्वा "नत्थि नत्थी'" आकिञ्चन्यायतन के समान शान्त भी नहीं हैं"-यों विज्ञानानन्त्यायतन में दोष देखकर, उसके प्रति आसक्ति छोड़ देनी चाहिये तथा आकिञ्चन्त्यायतन का शान्त के रूप में मनस्कार करते हुए, उसी आकाशानन्त्यायतन से सम्बद्ध विज्ञान के अभाव, शून्यता, रिक्तता (विविक्त आकार) पर मन लगाना चाहिये, जो विज्ञानानन्त्यायतन का आलम्बन बना था। कैसे? उस विज्ञान का मनस्कार न करते हुए, "नहीं है, नहीं है" या "शून्य, शून्य" या "रिक्त, रिक्त"-यों बार बार अभ्यास, मनस्कार, प्रत्यवेक्षण, तर्क वितर्क करना चाहिये। २०. यों उस निमित्त में चित्त लगाने वाले के नीवरण दब जाते हैं, स्मृति स्थिर होती हैं, उपचार द्वारा चित्त समाधिस्थ होता है। वह उस निमित्त का मनन, भावना, बारंबार अभ्यास करता है। जब वह ऐसा करता है, तब आकाश को आलम्बन बनानेवाले महद्गत (अत्युत्कृष्ट) विज्ञान में विज्ञानानन्त्यायतनं के समान, उसी आकाश को आलम्बन बनाकर प्रवृत्त हुए महद्गत विज्ञान के शून्यता, रिक्तता या अनस्तित्व में आकिञ्चन्यायतन चित्त उत्पन्न होता है। यहाँ भी अर्पणा की विधि पूर्वोक्त प्रकार से ही जाननी चाहिये। २१. अन्तर यह है-जैसे कोई पुरुष सभागार आदि में किसी कारणवश एकत्र हुए भिक्षुसङ्घ को देखे। तत्पश्चात् कहीं चला जाय। सभा का कार्य सम्पन्न हो जाने पर भिक्षु (भी) उठकर चले जाँय। तब व (पुरुष) लौटकर यदि द्वार पर खड़ा होकर फिर से उस स्थान को देखे तो शून्य ही देखेगा, रिक्त ही देखेगा। वह यह तो नहीं मान लेता कि "उतने भिक्षु दिवङ्गत हो गये, या १. नत्थि नत्थी ति। आमेडितवचनं भावनाकारदस्सनं ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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