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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १८३ पे०..निस्सरणं हेतं, आवुसो, अरतिया, यदिदं मुदिता चेतोविमुत्ति..निस्सरणं हेतं, आवुसो, रागस्स, यदिदं उपेक्खा चेतोविमुत्ती" (दी० नि० ३/७९६-७९७) ति। ५५. एकमेकस्स चेत्थ आसन-दूरवसेन द्वे द्वे पच्चत्थिका। मेत्ताब्रह्मविहारस्स हि-समीपचारो विय पुरिसस्स सपत्तो, गुणदस्सनसभागताय रागो आसन्नपच्चत्थिको। सो लहुं ओतारं लभति। तस्मा ततो सुटु मेत्ता रक्खितब्बा। पब्बतादिगहननिस्सितो विय पुरिसस्स सपत्तो, सभागविसभागताय व्यापादो दूरपच्चत्थिको। तस्मा ततो निब्भयेन मेत्तायितब्बं । मेत्तायिस्सति, कोपं च करिस्सती ति अट्ठानमेतं। करुणाब्रह्मविहारस्स-"चक्खुवि य्यानं रूपानं इट्टानं कन्तानं मनापानं मनोरमानं लोकामिसपटिसंयुत्तानं अप्पटिलाभं वा अप्पटिलाभतो समनुपस्सतो पुब्बे वा पटिलद्धपुब्बं अतीतं निरुद्धं विपरिणतं समनुस्सरतो उप्पज्जति दोमनस्सं, यं एवरूपं दोमनस्सं, इदं वुच्चति गेहसितं दोमनस्सं" (म० नि० ३/१३२४) ति आदिना नयेन आगतं गेहसितं' दोमनस्सं विपत्ति-दस्सनसभागताय आसन्नपच्चत्थिकं। सभागविसभागताय विहिंसा दूरपच्चत्थिका। तस्मा ततो निब्भयेन करुणायितब्बं। करुणं च नाम करिस्सति, पाणि-आदीहि च विहेठयिस्सती ति अट्ठानमेतं। मुदिताब्रह्मविहारस्स-"चक्खुविजेय्यानं रूपानं इट्टानं...पे०...लोकामिसपटि एवं राग का नाश है। एवं यह कहा भी गया है-"आयुष्मन्! क्योंकि यह व्यापाद से निःसरण (बाहर निकलता) है-यह जो मैत्री चित्तविमुक्ति है ...पूर्ववत्... आयुष्मन्, क्योंकि यह विहिंसा से नि:सरण है-यह जो करुणा-चित्तविमुक्ति है ...पूर्ववत्.. आयुष्मन्! क्योंकि यह अरति से नि:सरण है-यह जो मुदिता-चित्तविमुक्ति है...पूर्ववत्...आयुष्मन्! क्योंकि यह राग से निःसरण हैयह जो उपेक्षा-चित्तविमुक्ति है।" (दी० नि० ३/७९६-७९७)। ५५. प्रत्येक ब्रह्मविहार के निकटवर्ती और दूरवर्ती दो शत्रु हैं। किसी पुरुष के पास ही विचरण करने वाले उसके शत्रु के समान, मैत्रीब्रह्मविहार का निकटवर्ती शत्रु राग है, क्योंकि दोनों (मैत्री एवं राग) समान रूप से (दूसरों के) गुण को देखते हैं। वह (राग, मैत्रीयुक्त चित्त में प्रवेश का) अवसर शीघ्र ही पा जाता है। इसलिये उससे मैत्री की रक्षा भलीभाँति करनी चाहिये। पर्वत आदि गहन स्थान में रहने वाले शत्रु के समान, व्यापाद मैत्री का दूरस्थ शत्रु है; क्योंकि वह समान (राग) का असमान प्रतिपक्ष होता है। इसलिये उससे निर्भय होकर मैत्री करनी चाहिये। कोई मैत्री करे और साथ ही साथ कोप भी-यह सम्भव नहीं है। करुणाब्रह्मविहार का-"चक्षु द्वारा विज्ञेय इष्ट, कान्त, मनाप, मनोरम, लोकामिष (लौकिक सुखोपभोग) से युक्त रूपों के न मिलने पर 'नहीं मिला' यों सोचने से या जो पूर्वमें उपलब्ध थे किन्तु अब विगत, नष्ट और परिवर्तित हो चुके हैं उनका अनुस्मरण करने से दौर्मनस्य उत्पन्न होता है। इस प्रकार का दौर्मनस्य ही कामगुणनिश्रित दौर्मनस्य कहा.जाता है।" (म०नि० ३/१३२४)-आदि प्रकार से बतलाया गया कामगुणनिश्रित दौर्मनस्य समीपवर्ती शत्रु है; क्योंकि वह विपत्तिदर्शन करने में (करुणा के) समान है। समान का असमान होने से विहिंसा दूरवर्ती १. गेहसितं ति। कामगुणनिस्सितं। 2-14 -
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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