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विसुद्धिमग्गो
दुक्खापनयनाकारप्पवत्तिलक्खणा करुणा, परदुक्खासहनरसा, अविहिंसापच्चुपट्टाना, दुक्खाभिभूतानं अनाथभावदस्सनपदट्ठाना। विहिंसूपसमो तस्सा सम्पत्ति, सोकसम्भवो विपत्ति। (ख)
___पमोदलक्खणा मुदिता, अनिस्सायनरसा अरतिविघातपच्चुपट्टाना, सत्तानं सम्पत्तिदस्सनपदट्ठाना। अरतिवूपसमो तस्सा सम्पत्ति, पहाससम्भवो विपत्ति। (ग)
सत्तेसु मज्झत्ताकारप्पवत्तिलक्खणा उपेक्खा, सत्तेसु समभावदस्सनरसा, पटिघानुनयवूपसमपच्चुपट्टाना, 'कम्मस्सका सत्ता, ते कस्स रुचिया सुखित वा भविसन्ति, दुक्खतो वा मुच्चिस्सन्ति, पत्तसम्पत्तितो वा न परिहायिस्सन्ती' ति एवं पवत्तकम्मस्सकतादस्सनपदट्ठाना। पटिघानुनयवूपसमो तस्सा सम्पत्ति, गेहसिताय अाणुपेक्खाय सम्भवो विपत्ति। (घ)
५४. चतुन्नं पि पनेतेसं ब्रह्मविहारानं विपस्सनासुखं चेव भवसम्पत्ति च साधारणप्पयोजनं, ब्यापादादिपटिघातो आवेणिकं। ब्यापादपटिघातप्पयोजना हेत्थ मेत्ता, विहिंसाअरतिरागपटिघातप्पयोजना इतरा। वुत्त पि चेतं-"निस्सरणं हेतं, आवुसो, व्यापादस्स, यदिदं मेत्ता चेतोविमुत्ति...पे०...निस्सरणं हेतं, आवुसो, विहेसाय, यदिदं करुणा चेतोविमुत्ति... आना इसका रस (कृत्य) है। दूसरों को हानि पहुँचाने की इच्छा का दमन इसका प्रत्युपस्थान (जानने का आकार, अभिव्यक्ति) है। सत्त्वों को प्रिय समझना इसका पदस्थान (आसन्न कारण) है। व्यापाद का शमन होना इसकी सम्पत्ति (सफलता) है। (पृथग्जनोचित, स्वार्थपूर्ण) स्नेह का उत्पन्न होना विपत्ति (असफलता) है। (क)
दुःख को दूर करने के रूप में प्रवृत्त होना करुणा का लक्षण है। परदुःख को सहन न करना रस है। अविहिंसा प्रत्युपस्थान है। दुःखाभिभूतों का अनाथत्व (विवशता) देखना पदस्थान है। विहिंसा का शमन उसकी सम्पत्ति एवं (पृथग्जनोचित) शोक का उत्पन्न होना विपत्ति है। (ख)
मुदिता का लक्षण प्रमोद है। ईर्ष्यालु का प्रतिपक्ष होना रस है। (तात्पर्य यह है कि जो ईष्यालु है उसमें मुदिता नहीं रह सकती।) अरति (ऊब, अरुचि) का उन्मूलन प्रत्युपस्थान है। सत्त्वों की सम्पत्ति का दर्शन पदस्थान है। अरति का शमन उसकी सम्पत्ति, एवं प्रहास (हँसीठट्टे) की उत्पत्ति विपत्ति है। (ग)
सत्त्वों के प्रति मध्यस्थता के रूप में प्रवृत्त होना उपेक्षा का लक्षण है। सत्त्वों में समत्वदर्शन रस है। प्रतिघ एवं अनुनय का शमन प्रत्युपस्थान है। "सत्त्वों ने कर्म स्वयं ही किये हैं। फिर वे भला किस (दूसरे व्यक्ति) की रुचि के अनुसार सुखी हो सकेंगे या दुःख से छूट सकेंगे, या प्राप्त सम्पत्ति से वञ्चित न होंगे?"-कर्मों के इस स्वकृतित्व का दर्शन पदस्थान है। प्रतिघ एवं अनुनय का शमन उसकी सम्पत्ति, तथा कामगुणनिश्रित (गेहसित) अज्ञान (जन्य) उपेक्षा की उत्पत्ति विपत्ति है। (घ)
५४. इन चारों ब्रह्मविहारों का साधारण (समान) प्रयोजन विपश्यनारूप सुख एवं (अनागत) भव-सम्पत्ति है। व्यापाद आदि का नाश उनका अपना अपना प्रयोजन है। क्योंकि मैत्री का प्रयोजन व्यापाद का नाश है, जबकि अन्यों (करुणा, मुदिता, उपेक्षा) का प्रयोजन (क्रमश:) विहिंसा, अरति १. अनिस्सायनरसा ति। इस्सायनस्स उसूयनस्स पटिपक्खभावकिच्चा।