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________________ ति। ब्रह्मविहारनिद्देसो १८१ सभागताया ति। ततो परा पन विकुब्बना च आनिसंसपटिलाभो च मेत्तायं वुत्तनयेनेव वेदितब्बो अयं उपेक्खाभावनाय वित्थारकथा॥ पकिण्णककथा ब्रह्मत्तमेन कथिते इमे ब्रह्मविहारे इति विदित्वा। भिय्यो एतेसु अयं पकिण्णककथा पि विधेय्या॥ ५२. एतासु हि मेत्ता-करुणा-मुदिता-उपेक्खासु अस्थतो ताव-१. मेज्जती ति मेत्ता। सिनिह्यती ति अत्थो। मित्ते भवा, मित्तस्स वा एसा पवत्ती ति मेत्ता। २. परदुक्खे सति साधून हदयकम्पनं करोती ति करुणा । किणाति वा परदुक्खं, हिंसति विनासेती ति करुणा । किरियति वा दुक्खितेसु, फरणवसेन पसारियती ति करुणा । ३. मोदन्ति ताय तंसमङ्गिनो, सयं वा मोदति, मोदनमत्तमेव वा तं ति मुदिता। ४. 'अवेरा होन्तू' ति आदिब्यापारप्पहानेन मज्झत्तभावूपगमेन च उपेक्खती ति उपेक्खा। ५३. लक्खणादितो पनेत्थ हिताकारप्पवत्तिलक्खणा मेत्ता, हितूपसंहाररसा, आघातविनयपच्चुपट्ठाना, सत्तानं मनापभावदस्सनपदट्ठाना। ब्यापादूपसमो एतिस्सा सम्पत्ति, सिनेहसम्भवो विपत्ति। (क) से। (अर्थात् पृथ्वीकसिण आदि की मैत्री आदि से समानता नहीं है।) जिसे मैत्री आदि में तृतीय ध्यान उत्पन्न हो चुका है, उसी को उत्पन्न होता है, आलम्बन समान होने से। इसके बाद बहुआयामी परिवर्तनशीलता एवं गुण-लाभ को मैत्री में कथित प्रकार से समझना चाहिये। यह उपेक्षा भावना की विस्तृत व्याख्या है॥ प्रकीर्णक उत्तम ब्रह्मा (तथागत) द्वारा कथित इन ब्रह्मविहारों को इसी रूप में जानकर इनमें यह अतिरिक्त प्रकीर्णक (संयुक्त) वर्णन भी जानना चाहिये। ५२. इन मैत्री, करुणा, मुदिता, उपेक्षा में अर्थ के अनुसार १. मेद (स्नेह) से युक्त होती है, अत: मेत्ता (मैत्री) है। अर्थात् स्नेह करती है। अथवा, मित्र में उत्पन्न होती है, मित्र के प्रति प्रवृत्त होती है, अतः मैत्री है। २. दूसरों को दुःख होने पर साधुओं के हृदय को कँपाती है, अतः करुणा है अथवा, परदुःख को हानि पहुँचाती है, (उसकी) हिंसा करती है, विनाश करती है, अत: करुणा है। अथवा, दुःखितों पर बिखेर दी जाती है, विस्तृत रूप में फैला दी जाती है, अत: करुणा है। ३. उससे युक्त उसके द्वारा प्रमुदित होते हैं, या वह स्वयं मुदित होती है, या यह मुदित होना मात्र ही है; अतः मुदिता है। ४. "वैररहित हों" आदि व्यापार (चिन्तन, मनस्कार) छोड़ देने से एवं मध्यस्थ भाव रखने से उपेक्षा करती है, अत: उपेक्खा (उपेक्षा) है। ५३. लक्षण आदि से-हित के रूप में प्रवर्तित होना मैत्री का लक्षण है। हित को ले १. मेज्जती ति। धम्मतो अञस्स कत्तुनिवत्तनत्थं धम्ममेव कत्तारं कत्वा निद्दिसति ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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