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________________ १८० विसुद्धिमग्गो ४. उपेक्खाभावनाकथा ४९. उपेक्खाभावनं भावेतुकामेन पन मेत्तादीसु पटिलद्धतिकचतुक्कज्झानेन पगुणततियज्झाना वुट्ठाय "सुखिता होन्तू" ति आदिवसेन सत्तकेलायनमनसिकारयुत्तत्ता, पटिघानुनयसमीपचारित्ता, सोमनस्सयोगेन ओळारिकत्ता च पुरिमासु आदीनवं, सन्तसभावत्ता उपेक्खाय आनिसंसं च दिस्वा य्वास्स पकतिमज्झत्तो पुग्गलो, तं अज्झुपेक्खित्वा उपेक्खा उप्पादेतब्बा। ततो पियपुग्गलादीसु। वुत्तं हेतं-"कथं च भिक्खु उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति ? सेय्यथापि नाम एकं पुग्गलं नेव मनापं न अमनापं दिस्वा उपेक्खको अस्स, एवमेव सब्बे सत्ते उपेक्खाय फरती" (अभि० २/२३१) ति। ५०. तस्मा वुत्तनयेनेव मज्झत्तपुग्गले उपेक्खं उप्पादेत्वा अथ पियपुग्गले, ततो सोण्डसहायके, ततो वेरिम्ही ति एवं इमेसु च तीसु अत्तनि चा ति सब्बत्थ मज्झत्तवसेन सीमासम्भेदं कत्वा तं निमित्तं आसेवितब्बं भावेतब्बं बहुलीकातब्बं। तस्सेवं करोतो. पथवीकसिणे वुत्तनयेनेव' चतुत्थज्झानं उप्पजति। ५१. किं पनेतं पथवीकसिणादीसु उप्पन्नततियज्झानस्सा पि उप्पज्जती ति? नुपज्जति। कस्मा? आरम्मणविसभागताय। मेत्तादिसु उप्पन्नततियज्झानस्सेव पन उप्पज्जति, आरम्मण ४. उपेक्षा भावना ४९. उपेक्षाभावना के अभिलाषी को, जो मैत्री आदि में त्रिक या चतुष्क ध्यान प्राप्त कर चुका हो, (चतुष्क नय के अनुसार) तृतीय ध्यान का भली भाँति अभ्यास करने के बाद, उससे उठकर "सुखी हों" आदि के रूप में सत्त्वों के भोगविलास के प्रति मनस्कारयुक्त होने से, प्रतिघ एवं अनुनय (स्वीकृति) के समीपवर्ती होने से, तथा सौमनस्य के योग के कारण स्थूल होने से, पूर्व की (मैत्री आदि की) भावना में दोष देखते हुए जो व्यक्ति इस (योगी) के लिये प्रकृति (से ही) मध्यस्थ हो; उसके प्रति उपेक्षा करते हुए उपेक्षा उत्पन्न करनी चाहिये। तत्पश्चात् प्रिय व्यक्ति आदि के प्रति। क्योंकि यह कहा गया है-"कैसे भिक्षु उपेक्षायुक्त चित्त से एक दिशा को आलम्बन बनाकर विहार करता है? जैसे कि किसी ऐसे व्यक्ति को, जो न तो प्रिय हो, न अप्रिय, देखकर उपेक्षा होती है, वैसे ही सभी सत्त्वों के प्रति उपेक्षा के साथ साधना करता है।" (अभि० २/२३१)। ५०. इसलिये यथोक्त प्रकार से ही, मध्यस्थ व्यक्ति के प्रति उपेक्षा उत्पन्न करने के बाद प्रिय व्यक्ति के प्रति, तब घनिष्ठ मित्र के प्रति, फिर वैरी के प्रति-यों इन तीनों तथा स्वयं के प्रति भी। सर्वत्र (चारों के विषय में) मध्यस्थ से सीमा-अतिक्रमण (आरम्भ) करते हुए, (क्रमश: आगे बढ़ते हुए) उस निमित्त का अभ्यास, भावना (बार-बार अभ्यास) करना चाहिये। ऐसा करने वाले को पृथ्वीकसिण में प्रोक्तानुसार ही चतुर्थ ध्यान उत्पन्न होता है। ५१. किन्तु क्या चतुर्थ ध्यान उस को उत्पन्न होता है जिसने पृथ्वीकसिण आदि को आलम्बन बनाकर तृतीय ध्यान प्राप्त किया है? (उस को) नहीं उत्पन्न होता। क्यों? आलम्बन असमान होने १. "अयं समापत्ति आसनपीतिपच्चत्थिका" ति आदिना पथवीकसिणे वुत्तनयेन।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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