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________________ १८४ विसुद्धिमग्गो संयुत्तानं पटिलाभं वा पटिलाभतो समनुपस्सतो पुब्बे वा पटिलद्धपुब्बं अतीतं निरुद्धं विपरिणतं समनुस्सरतो उप्पजति सोमनस्सं; यं एवरूपं सोमनस्सं, इदं वुच्चति गेहसितं सोमनस्सं" (म० नि० ३/१३२४) ति आदिना नयेन आगतं गेहसितं सोमनस्सं सम्पत्तिदस्सनसभागताय आसन्नपच्चत्थिकं । सभागविसभागताय अरति दूरपच्चित्थिका। तस्मा ततो निब्भयेन मुदिता भावेतब्बा। पमुदितो च नाम भविस्सति, पन्तसेनासनेसु च अधिकुसलधम्मेसु वा उक्कण्ठिस्सती ति अट्ठानमेतं। . ___ उपेक्खाब्रह्मविहारस्स पन-"चक्खुना रूपं दिस्वा. उप्पजति उपेक्खा बालस्स मूळ्हस्स पुथुजनस्स अनोधिजिनस्स अविपाकजिनस्स अनादीनवदस्साविनो अस्सुतवतो पुथुजनस्स, या एवरूपा उपेक्खा, रूपं सा नातिवत्तति, तस्मा सा उपेक्खा गेहसिता ति वुच्चती" (म० नि० ३/१३२५) ति आदिना नयेन आगता गेहसिता अज्ञाणुपेक्खा दोसगुणअविचारणवसेन सभागत्ता आसन्नपच्चत्थिका। सभागविसभागताय रागपटिंघा दूरपच्चत्थिका। तस्मा ततो निब्भयेन उपेक्खितब्बं । उपेक्खिस्सति च नाम रजिस्सति च पटिहञिस्सति चा ति अट्ठानमेतं। ५६. सब्बेसं पि च एतेसं कत्तुकामता च्छन्दो आदि, नीवरणादिविक्खम्भनं मल्झं, अप्पना परियोसानं, पत्तिधम्मवसेन एको व सत्तो अनेके वा सत्ता आरम्मणं, उपचारे वा अप्पनाय वा पत्ताय आरम्मणवड्ढनं।। शत्रु हैं। इस कारण उससे निर्भय रहकर करुणा करनी चाहिये। कोई करुणा करे और साथ ही प्राणी आदि के प्रति क्रूर भी हो, यह सम्भव नहीं है। मुदिताब्रह्मविहार का-"चक्षु द्वारा विज्ञेय इष्ट...पूर्ववत्...लोकामिष रूपों के लाभ को 'लाभ हुआ'-यों सोचने से या जो पूर्व में (लाभ) प्राप्त था किन्तु अब अतीत, निरुद्ध, परिवर्तित हो गया है उसका बार बार स्मरण करने से सौमनस्य उत्पन्न होता है। ऐसे सौमनस्य को कामगुणनिश्रित सौमनस्य कहते हैं।" (म० नि० ३/१३२४)-आदि प्रकार से बतलाया गया कामगुणनिश्रित सौमनस्य-समापत्ति-दर्शन में समान होने से निकटवर्ती शत्रु हैं। समान का असमान होने से अरति दूरवर्ती शत्रु है। इसलिये उससे निर्भय रहते हुए मुदिता की भावना करनी चाहिये। कोई प्रमुदित भी हो और सुदूर शयनासनों से, शमथ-विपश्यना (अधिकुशल धर्मों) से असन्तुष्ट भी हो, यह सम्भव नहीं है। उपेक्षाब्रह्मविहार का-"चक्षु से रूप देखकर सीमाओं का अतिक्रमण न करने वाले, विपाक (कर्म-फल) को न जीतने वाले, दोष न देखने वाले, बाल, मूढ, जिसने सद्धर्म का श्रवण ही न किया हो ऐसे पृथग्जन को (भी) उपेक्षा उत्पन्न होती है। ऐसी उपेक्षा रूप का अतिक्रमण नहीं करती। अत: वह उपेक्षा कामगुणनिश्रित कही जाती है।" (म० नि० ३/१३२५)-आदि प्रकार से बतलायी गयी कामगुणनिश्रित अज्ञानजन्य उपेक्षा दोष-गुण का विचार न करने से विषय में उपेक्षाब्रह्मविहार के समान है, अतः निकटवर्ती शत्रु है। समान के असमान होने से राग एवं प्रतिघ दूरवर्ती शत्रु हैं। कोई उपेक्षा भी करे एवं साथ ही राग या द्वेष भी करे-यह हो ही नहीं सकता। १. अधिकुसलधम्मेसू ति। समथविपस्सनाधम्मेसु।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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