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________________ १७३ ब्रह्मविहारनिद्देसो सो अत्तनो भोगक्खन्धं पुत्तदारस्स निय्यादेत्वा दसन्ते' बद्धन एककहापणेनेव घरा निक्खमित्वा समुद्दतीरे नावं उदिक्खमानो एकमासं वसि। सो वोहारकुसलताय इमस्मि ठाने भण्डं किणित्वा असुकस्मि विक्किणन्तो धम्मिकाय वणिजाय तेनेवन्तरमासेन सहस्सं अभिसंहरि। अनुपुब्बेन महाविहारं आगन्त्वा पब्बजं याचि। सो पब्बाजनत्थाय सीमं नीतो तं सहस्सत्थविकं ओवट्टिकन्तरेन भूमियं पातेसि। 'किमेतं' ति च वुत्ते “कहापणसहस्सं, भन्ते" ति वत्वा "उपासक, पब्बजितकालतो पट्ठाय न सक्का विचारेतुं, इदानेवेतं विचारेही" ति वुत्ते "विसाखस्स पब्बजट्टानं आगता मा रित्तहत्था गमिंसू" ति मुञ्चित्वा सीमामाळके विपकिरित्वा पब्बजित्वा उपसम्पन्नो। सो पञ्चवस्सो हुत्वा द्वे मातिका पगुणा कत्वा पवारेत्वा अत्तनो सप्पायं कम्मट्ठानं गहेत्वा एकेकस्मि विहारे चत्तारो मासे कत्वा समप्पवत्तवासं वसमानो चरि। एवं चरमानो वनन्तरे ठितो थेरो विसाखो गज्जमानको। अत्तनो गुणमेसन्तो इममत्थं अभासथ ॥ "यावता उपसम्पन्नो यावता इध आगतो। एत्थन्तरे खलितं नत्थि अहो लाभा ते, मारिसा" ति॥ ' सो चित्तलपब्बतविहारं गच्छन्तो द्वेधापथं पत्वा "अयं नु खो मग्गो उदाहु अयं" ति जहाँ चाहे वहाँ बैठा-सोया जा सकता है। अनुकूल ऋतु, अनुकूल पुद्गल, अनुकूल धर्मश्रवण सब यहाँ सुलभ हैं।" . वे अपनी धन-सम्पत्ति पुत्र और स्त्री को सौंपकर, वस्त्र के कोने में बँधे हुए (मात्र) एक कार्षापण के साथ ही घर से निकल पड़े। समुद्र तट पर नाव की प्रतीक्षा में एक महीने निवास किया। व्यापार में कुशल होने से एक स्थान से सामान खरीदकर दूसरे स्थान पर बेचते हुए धर्मसम्मत वाणिज्य से उसी एक महीने के भीतर सहस्र (कार्षापण) सञ्चित कर लिये एवं क्रमश: महाविहार में आकार प्रव्रज्या की याचना की। जब उन्हें प्रव्रज्याहेतु सीमा (चारदीवारी) के भीतर ले जाया जा रहा था, उस समय सहस्र मुद्राओं की वह थैली उनके कटिबन्ध से भूमि पर गिर पड़ी। "यह क्या है?"-यों पूछे जाने पर कहा-"सहस्र कार्षापण, भन्ते!" "उपासक, प्रव्रज्या लेने के बाद तो (इनके बारे में) सोच लो (कि इनका क्या करना है)!"-यों कहे जाने पर-'विशाख की प्रव्रज्यास्थल पर आये हुए खाली हाथ न जाँय।"-यों सोचकर थैली खोलकर सीमा के मैदान में बिखेर कर और प्रव्रज्या ग्रहण कर उपसम्पन्न हुए। जब प्रव्रज्या के बाद पाँच वर्ष बीत गये, तब उन्होंने दो मातृकाओं (भिक्षुप्रातिमोक्ष, भिक्षुणीप्रातिमोक्ष) का भलीभाँति अभ्यास कर, प्रवारणा समाप्त कर, अनुकूल कर्मस्थान का ग्रहण कर, एक एक विहार में चार चार महीने तक, वहाँ के निवासियों के प्रति समभाव रखते हुए, विचरण किया। यों विचरण करते हुए-वन के बीच वर्तमान स्थविर विशाख ने गर्जना करते हुए अपने १. दसा व अन्तो दसन्तो। वत्थस्स ओसानन्तो, तत्थ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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