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________________ १७२ विसुद्धिमग्गो इति एतासु अप्पनासु यस्स कस्सचि वसेन मेत्तं चेतोविमुत्तिं भावेत्वा अयं योगावचरो "सुखं सुपती" ति आदिना नयेन वुत्ते एकादसानिसंसे पटिलभति। ४०. तत्थ सुखं सुपती ति। यथा सेसा जना सम्परिवत्तमाना काकच्छमाना दुक्खं सुपन्ति, एव असुपित्वा सुखं सुपति। निदं ओक्कन्तो पि समापत्तिं समापन्नो विय होति। (१) सुखं पटिबुझती ति। यथा अजे नित्थुनन्ता विजम्भन्ता सम्परिवत्तन्ता दुक्खं पटिबुज्झन्ति, एवं अप्पटिबुज्झित्वा विकसमानमिव पदुमं सुखं निब्बिकारं पटिबुज्झति। (२) न पापकं सुपिनं पस्सती ति। सुपिनं पस्सन्तो पि. भद्दकमेव सुपिनं पस्सति, चेतियं वन्दन्तो विय पूजं करोन्तो विय धम्मं सुणन्तो विय च होति। यथा पन अञ्चे अत्तानं चोरेहि सम्परिवारितं विय वाळेहि उपद्रुतं विय पपाते पतन्तं विय च पस्सन्ति, एवं पापकं सुपिनं न पस्सति। (३) मनुस्सानं पियो होती ति। उरे आमुत्तमुत्ताहारो विय सीसे पिळन्धमाना विय च मनुस्सानं पियो होति मनापो। (४) अमनुस्सानं पियो होती ति। तथैव मनुस्सानं, एवं अमनुस्सानं पियो होति, विसाखत्थेरो विय। सो किर पाटलिपुत्ते कुटुम्बियो अहोसि। सो तत्थेव वसमानो अस्सोसि"तम्बपण्णिदीपो किर चेतियमालालङ्कतो कासावपज्जोतो इच्छितिच्छितट्ठाने येव एत्थ सक्का निसीदितुं वा निपज्जितुं वा, उतुसप्पायं सेनासनसप्पायं पुग्गलसप्पायं धम्मसवनसप्पायं ति सब्बमेत्थ सुलभं" ति। 8. अट्ठाईस अट्ठाईस करके दो सौ अस्सी। (इस प्रकार कुल) चार सौ अस्सी अर्पणा होती हैं। इस प्रकार, पटिसम्भिदा में कही गयी सब पाँच सौ अट्ठाईस अर्पणा होती हैं। _यों इन अर्पणाओं में से जिस किसी के अनुसार मैत्री-चित्त-विमुक्ति की भावना करके यह योगी "सुखपूर्वक सोता है"-आदि प्रकार से कहे गये ग्यारह गुणों का लाभ करता है। ४०. उनमें, सुखं सुपति-जैसे शेष लोग करवटें बदलते हुए, गले में घरघराहट के साथ, बेचैनी के साथ सोते हैं, वैसे न सोकर सुखपूर्वक सोता है। नीद में भी वह समापत्तिलाभी जैसा होता है। (१) सुखं पटिबुझति-जैसे दूसरे कराहते हुए, जम्हाई लेते हुए, करवटें बदलते हुए सोकर उठते हैं, वैसे न उठकर, वह खिलते हुए कमल जैसा सुखपूर्वक निर्विकार जागता है। (२) न पापकं सुपिनं पस्सति-स्वप्न देखते समय भी अच्छे स्वप्न ही देखता है, जैसे चैत्य की वन्दना करते हुए, पूजा करते हुए, धर्मश्रवण करते हुए; अन्य लोग अपने को हिंसक जन्तुओं से सन्त्रस्त या प्रपात में गिरते हुए देखा करते हैं, वैसा दुःस्वप्र नहीं देखता। (३) मनुस्सानं पियो होति-वक्ष पर झूलते हुए मुक्ताहार के समान और शीश पर गुम्फित माला के समान मनुष्यों का प्रिय और दुलारा होता है। (४) . ___ अमनुस्सानं पियो होति-जैसे मनुष्यों का, वैसे ही अमनुष्यों का भी प्रिय होता है विशाख स्थविर के समान। कहते हैं कि वे पाटलिपुत्र के एक गृहस्थ थे। उन्होंने वहीं रहते हुए सुना"ताम्रपर्णी द्वीप चैत्यमाला (पंक्ति) से अलंकृत, काषाय वस्त्रों (की आभा) से प्रकाशमान है, यहाँ
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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