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________________ ब्रह्मविहारनिद्देसो १७१ सब्बसत्तवेवचनानि अत्थि, पाकटवसेन पन इमानेव पञ्च गहेत्वा "पञ्चहाकारेहि अनोधिसोफरणा मेत्ता चेतोविमुत्ती'' ति वुत्तं । ये पन, सत्ता पाणा ति आदीनं न केवलं वचनमत्ततो व, अथ खो अत्थतो पि नानत्तमेव इच्छेय्युं, तेसं अनोधिसोफरणा विरुज्झति, तस्मा तथा अत्थं अगहेत्वा इमेसु पञ्चसु आकारेसु अतरवसेन अनोधिसो मेत्ता फरितब्बा। ३९. एत्थ च 'सब्बे सत्ता अवेरा होन्तू' ति अयमेका अप्पना। 'अब्यापज्झा होन्तू' ति अयमेका अप्पना। अब्यापज्झा ति। ब्यापादरहिता। अनीघा होन्तू' ति अयमेका अप्पना। अनीघा ति। निढुक्खा। 'सुखी अत्तानं परिहरन्तू' ति अयमेका अप्पना। तस्सा इमेसु पि पदेसु यं यं पाकटं होति, तस्स तस्स वसेन मेत्ता फरितब्बा। इति पञ्चसु आकारेसु चतुन्नं अप्पनानं वसेन अनोधिसोफरणे वीसति अप्पना होन्ति । ओधिसोफरणे पन सत्तसु आकारेसु चतुन्नं वसेन अट्ठवीसति। एत्थ च, इत्थियो पुरिसा ति लिङ्गवसेन वुत्तं। अरिया अनरिया ति अरियपुथुज्जनवसेन। देवा मनुस्सा विनिपातिका ति उपपत्तिवसेन। दिसाफ़रणे पन ‘सब्बे पुरत्थिमाय दिसाय सत्ता' ति आदिना नयेन एकमेकिस्सा दिसाय वीसति वीसति कत्वा द्वेसतानि। 'सब्बा पुरत्थिमाय दिसाय इत्थियो' ति आदिना नयेन एकमेकिस्सा दिसाय अट्ठवीसति अट्ठवीसति कत्वा असीति द्वेसतानी ति चत्तारि सतानि असति च अप्पना । इति सब्बानि पि पटिसम्भिदायं वुत्तानि अट्ठवीसाधिकानि पञ्च अप्पनासतानी ति। जैसे सभी जन्तु, सभी जीव आदि; किन्तु स्पष्टता के उद्देश्य से इन्हीं पाँच (सत्त्व, प्राणी, भूत, पुद्गल, आत्मभावपर्यापन) का ग्रहण करते हुए "पाँच प्रकार से विभागरहित व्यापक मैत्री-चित्तविमुक्ति" कही गयी है। किन्तु जो 'सत्त्व', 'प्राणी' आदि में न केवल शब्दतः अपितु अर्थतः भी अन्तर मानते हैं, उनकी विभागरहित व्यापक (मैत्री) विरुद्ध होती है, इसलिये अर्थ का वैसे ग्रहण न कर, इन पाँच रूपों में से ही किसी एक के अनुसार विभागरहित मैत्री का विस्तार करना चाहिये। ३९. एवं यहाँ"सभी सत्त्व वैररहित हों"-यह एक अर्पणा है। "व्यापादरहित हों" यह एक अर्पणा है। अव्यापज्झा-व्यापादरहित। 'व्याकुलतारहित हों'- यह एक अर्पणा है। अनीघा-दुःखरहित। 'सुखी होकर जीवन यापन करें-यह एक अर्पणा है। इसलिये इन पदों में से भी जो जो स्पष्ट प्रतीत हों, उन उन के अनुसार मैत्री का विस्तार करना चाहिये। यों पाँच प्रकारों (आकारों) में चार चार अर्पणा होती है जिनके अनुसार विभागरहित विस्तार वाली बीस अर्पणा होती है। विभागसहित में सात प्रकारों से चार चार के अनुसार अट्ठाईस। एवं इस प्रसङ्ग में "स्त्रियाँ और पुरुष" यह लिङ्ग की दृष्टि से, "आर्य और अनार्य"-यह आर्य और पृथग्जन के और "देव मनुष्य और दुर्गतिप्राप्त"-यह उत्पत्ति के अनुसार कहा गया है। दिशाव्यापक (अर्पणा) में-"सब पूर्व दिशा के सत्त्व" आदि प्रकार से एक-एक दिशा में बीस बीस करके दो सौ। "सब पूर्व दिशा की स्त्रियाँ" आदि प्रकार से एक-एक दिशा में
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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