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________________ १७० विसुद्धिमग्गो या तण्हा, तत्र सत्तो, तत्र विसत्तो, तस्मा सत्तो ति वुच्चति। वेदनाय, साय, सङ्खारेसु, विज्ञाणे यो छन्दो यो रागो या नन्दी या तण्हा, तत्र सत्तो, तत्र विसत्तो, तस्मा सत्तो ति वुच्चती" (सं० नि० २/२८७) ति। __रूळ्हिसदेन पन वीतरागेसु पि अयं वोहारो वत्तति येव, विलीवमये पि बीजनिविसेसे तालवण्टवोहारो विय। अक्खरचिन्तका पन अत्थं अविचारेत्वा, नाममत्तमेतं ति इच्छन्ति। ये पि अत्थं विचारेन्ति, ते सत्वयोगेन' सत्ता ति इच्छन्ति। ३७. पाणनताय पाणा, अस्सासपस्सासायत्तवुत्तिताया ति अत्थो। भूतत्ता भूता, सम्भूतत्ता अभिनिब्बत्तत्ता ति अत्थो। 'पु' ति वुच्चति निरयो, तस्मिं गलन्ती ति पुग्गला। गच्छन्ती ति अत्थो। अत्तभावो वुच्चति सरीरं, खन्धपञ्चकमेव वा, तं उपादाय पञत्तिमत्तसम्भवतो। तस्मि अत्तभावे परियापन्ना ति अत्तभावपरियापना। परियापन्ना ति परिच्छिन्ना, अन्तोगधा ति अत्थो। ___३८. यथा च सत्ता ति वचनं, एवं सेसानि पि रूळ्हिवसेन आरोपेत्वा सब्बानेतानि सब्बसत्तवेवचनानी ति वेदितब्बानि। कामं च अञानि पि सब्बे जन्तू सब्बे जीवा ति आदीनि हैं। क्योंकि भगवान् ने कहा है-"राध! रूप में जो छन्द है, जो राग है, जो नन्दी है, जो तृष्णा है, उसमें सक्त है, विशेष रूप से सक्त है, अतः सत्त्व 'सक्त' कहा जाता है। वेदना में, संज्ञा में, संस्कारों में, विज्ञान में जो छन्द है, जो राग है, जो नन्दी है, जो तृष्णा है; उनमें सक्त है, विशेष रूप से सक्त है, अत: 'सक्त' कहा जाता है।' (सं० नि० २/९८७)। किन्तु रूढ़ि शब्द से (रूढ़ि के आधार पर) वीतरागों के लिये भी यह (सत्त्व शब्द) व्यवहृत होता है, जैसे कि बाँस को काट-छीलकर बनाये गये पंखे के लिये भी 'ताड़ के पंखे' का व्यवहार होता है। शब्दव्युत्पत्तिविज्ञानी (अक्षरचिन्तक) जो कि अर्थ का विचार नहीं करते, इसे ('सत्त्व' शब्द को) मात्र (एक) नाम मानते हैं। और जो अर्थ का भी विचार करते हैं (जैसे सांख्य) वे 'सत्त्व' (सांख्यवादी के मत में तीन गुणों में से एक) के योग से 'सत्त्व' (की व्युत्पत्ति) मानते हैं। ३७. प्राणन (आश्वास-प्रश्वास) करने से पाणा (प्राणी) हैं। अर्थात् क्योंकि उनका अस्तित्व आश्वास-प्रश्वास पर निर्भर है। होने (भूतत्व) से भूता है। अर्थात् क्योंकि वे पूरी तरह से हो चुके (सम्भूत) हैं, उत्पन्न हो चुके (अभिनिवृत्त) हैं। 'पुं' नरक को कहते हैं, उसमें गलते हैं (च्युत होते हैं) इसलिये पुग्गला (पुद्गल) हैं। अर्थात् (उसमें) जाते हैं। अत्तभाव शरीर को कहा जाता है। अथवा यह स्कन्धपञ्चक ही है; क्योंकि यह (आत्मभाव या आत्मा) स्कन्धपञ्चक के आधार पर निर्मित एक प्रत्ययमात्र है। उस आत्मभाव से समाविष्ट (पर्यापन) है, अतः अत्तभावपरियापना हैं। पर्यापन्न अर्थात् परिच्छिन्न, अन्तःप्रविष्ट। ३८. एवं जैसा कि 'सत्त्व' पद के विषय में, वैसे ही शेष (पदों) को भी रूढ़ि के अनुसार प्रयुक्त "सभी सत्त्वों" का पर्याय समझना चाहिये। वैसे "सभी सत्त्वों" के अन्य पर्याय भी हैं, १. सत्वयोगतो ति मरम्मपाठो। एत्थ सत्वं नाम बुद्धि विरियं तेजो वा, तेन योगतो सत्ता । यथा "नीलगुणयोगतो नीलो पटो" ति। २. गलन्ति। चवन्ती ति अत्थो।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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