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________________ विसुद्धिमग्गो चिन्तयन्तो अट्टासि । अथस्स पब्बते अधिवत्था देवता हत्थं पसारेत्वा "एस मग्गो" ति वत्वा दस्सेसि | सो चित्तपब्बतविहारं गन्त्वा तत्थ चत्तारो मासे वसित्वा "पच्चूसे गमिस्सामी" ति चिन्तेत्वा निपज्जि । चङ्कमसीसे मणिलरुक्खे अधिवत्था देवता सोपानफलके निसीदित्वा परोदि । थेरो “को एसो ?” ति आह । " अहं, भन्ते, मणिलिया" ति । " किस्स रोदसी " ति ? " तुम्हाकं गमनं पटिच्चा" ति। “मयि इध वसन्ते तुम्हाकं को गुणो" ति ? " तुम्हेसु, भन्ते, इंध वसन्तेसु अमनुस्सा अञ्ञमञ्जं मेत्तं पटिलभन्ति, ते दानि तुम्हेसु गतेसु कलहं करिस्सन्ति, दुट्टुल्लं पि कथयिस्सन्ती” ति। थेरो "सचे मयि इध वसन्ते तुम्हाकं फासविहारो होति, सुन्दरं " ति वत्वा अपि चत्तारो मासे तत्थेव वसित्वा पुन तथेव गमनचित्तं उप्पादेसि । देवता पि पुन तथेव परोदि । एतेनेव उपायेन थेरो तत्थेव वसित्वा तत्थेव परिनिब्बायी ति । एवं मेत्ताविहारी भिक्खु अमनुस्सानं पियो होति । (५) देवता रक्खन्तीति । पुत्तमिव मातापितरो देवता रक्खन्ति । (६) नास अग्ग वा विसं वा सत्थं वा कमती ति । मेत्ताविहारिस्स काये उत्तराय उपासिकाय १७४ के बारे में प्रत्यवेक्षण करते हुए यह कहा - " जबसे उपसम्पन्न हुए हो और जबसे यहाँ आये हो, इस बीच तुमसे कोई प्रमाद (भूल-चुक) नहीं हुआ। हे मार्ष ! १ तुम्हारे लाभ के क्या कहने!" ॥ जब वे चित्तलपर्वत के विहार की ओर जा रहे थे, तब दोनों ओर जाने वाले रास्ते को पाकर " यह रास्ता या यह ? " - यों सोचते हुए खड़े थे। तब उन्हें पर्वत पर रहने वाले देवता ने हाथ फैलाकर—‘“यह रास्ता है" - कहते हुए रास्ता दिखलाया । (प्रस्तर) वे चित्तल पर्वत विहार जाकर वहाँ चार महीने रहने के बाद " भोर में चला जाऊँगा" यों सोचकर सो गये। चंक्रमण - कोण पर ( स्थित ) मणिल वृक्ष पर रहने वाला देवता सीढ़ी के ) - फलक पर बैठकर रोने लगा। स्थविर ने पूछा - "कौन है ?" "भन्ते, मैं मणिलियाँ ‍ हूँ।'' ''किसलिये रो रहे हो ?" "आपके जाने के कारण।" "मेरे यहाँ रुकने से तुम्हारा क्या लाभ होगा ?" " भन्ते ! आपके यहाँ रहने से अमनुष्य परस्पर मैत्रीपूर्वक रहते हैं, वे अब आपके जाने के बाद परस्पर कलह करेंगे, दुर्वचन भी कहेंगे ।" स्थविर ने यह कहकर कि "यदि मेरे यहाँ रहने से तुम सब सुख से रह सकते हो, तो ठीक है।" अगले चार महीने भी वहीं रहकर उन्होंने पुनः जाने के लिये मन बनाया। देवता फिर से वैसे ही रोया । इस प्रकार स्थविर वहीं रहते हुए परिनिर्वृत हुए । यों मैत्री - विहारी भिक्षु अमनुष्यों को भी प्रिय होता है । (५) देवता रक्खन्ति - जैसे माता-पिता पुत्र की वैसे ही देवता ( उसकी रक्षा करते हैं । (६) १. संस्कृत और पालि दोनों में ही इसे आयुष्मान् के समान आदर - स्नेहसूचक सम्बोधन माना जाता है। आचार्य बुद्धघोष के अनुसार इसका अर्थ है-दुःखरहित । द्र० - रीज़ डेविड्स की 'पालि इंगलिश डिक्शनरी' पृष्ठ - ५३० । २. एक प्रकार का वृक्ष । मणिल का शाब्दिक अर्थ है - वह जिसमें मांस के लोथड़े लटके हों, जैसे साँड़ के गले में लटका होता है। - अनु० ३. मणिल वृक्ष पर निवास करने के कारण उसने स्वयं को मणिलिया कहा ।
SR No.002429
Book TitleVisuddhimaggo Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year2002
Total Pages386
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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